Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 800
________________ ७५६/गो. सा. जीवकाण्ड गाथा ०५ हाँ, गुणस्थानातिक्रान्तसिद्ध भव्याभव्य विकल्प से रहित हैं। यानी न ही भव्य हैं, न ही अभव्य ।' पर पंचसंग्रह में भव्यमार्गणा की अपेक्षा १२ ही (क्षीणकापाय पर्यन्त) गुणस्थान कहे हैं । तथा सयोगी के भव्य व्यपदेश नहीं है, ऐसा कहा है। (धवला, सर्वार्थसिद्धि आदि में तो भव्यों में १४ ही गुरास्थान बताये हैं पर पंचसंग्रह में भव्यों में १२ ही स्थान पाने हैं .) सम्यक्त्यमार्गणा-मिथ्यात्व तो प्रथम गुग्गस्थान में ही होता है। सासादन सम्यक्त्व दूसरे गुणस्थान में ही होता है। सभ्य रिमथ्यात्व तीसरे गणस्थान में ही होता है। चौथे से सातवें में वेदक, उपशम व क्षायिक तीनों होते हैं। ऊपर श्रेणी में उपशम श्रेणी के स्थानों में उपशम या क्षायिक सम्यग्दर्शन सम्भव है। क्षपधेरणी के गुरगस्थानों में मात्र क्षायिक सम्यक्त्व होता है। तथा बारहवें से आगे के गुणस्थान द्वय व सिद्धों में भो क्षायिक सम्यक्त्व ही होता है। संजीमार्गणा -असंज्ञी मात्र प्रथम मुणस्थान में अथवा प्रथम व द्वितीय गुणस्थान में सम्भव हैं। तथा संज्ञी सभी गुग्गस्थानों में (बारहवें तक) होते हैं। तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थान में जीव न संज्ञी, न ही प्रसंज्ञी यानी संज्ञी-असंज्ञो विकल्प से रहित होते हैं । माहारमार्गणा -प्रथम, द्वितीय व चतुर्थ तथा त्रयोदश---इन ४ गुणस्थानों में तो अनाहारक भी होते हैं पर अयोगी अनाहारक ही होते हैं । शोष नौ गुणस्थानों में नियम से प्राहारक ही होते हैं । (गुणस्थानातीत, सिद्धिप्राप्त सिद्ध अनाहारक हैं ही) गरणस्थानों में उपयोगों का कथन दोहं पंच य छच्चेब दोसु मिस्सम्मि होति वामिस्सा । सत्तुवजोगा सत्तसु दो चेव जिणे य सिद्ध य ।।७०५।। गायार्थ - दो में पांच और दो में छह, मिश्र में मिश्र रूप छह होते हैं। सात में सात उपयोग, जिनों में दो ही व सिद्धों में भी दो ही उपयोग होते हैं ।।७०५।। विशेषार्थ-जीव का जो भाव वस्तु के ग्रहण के लिए प्रवृत्त होता है उसे उपयोग कहते हैं।' उपयोग के भलतः दो भेद हैं - ज्ञानोपयोग व दर्शनोपयोग । प्रथम उपयोग, ज्ञानोपयोग के भेद होते हैं। कुमति, कुश्रुत, कुप्रवधि, मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवल । दर्शनोपयोग के ४ भेद - -- -- १. घ. २/४५१ सिद्धारणंति भण्णमाणे गोव भवसिद्धिया, णेव अभयसिद्धिमा होति । गो. जी. ५५६ । २. मध्ये मिथ्यादृष्ट्यादीने क्षीगा कषायान्तानि द्वादश १२ सयोगायोगयोमव्य-पदेशो नास्तीनि । प्रा. पं. सं. ४/१७/१००। ३. घ. २/५३३ यथा असशीण भण्रणमाणे अस्थि एवं गाठाणं........। 6. इदं कथनं प्राकृतपञ्चसंग्रहमतानुसार वर्तते-यथा प्रस गिरणयम्मि जीवे दोण् िय मिच्छाइ बोहत्या । प्रा. पं. सं. ४/६९/१०१। ५. ध. १४४-४५ ६. प्रा. पं. सं. ४/७० पृ. १०१-१०२ एवं घ. पृ. ४५७ पर्यन्त । एष ध. २/८३६ से २५५। ७. गो. जी. ६७२, गो. जी. ७, प्रा.म.सं. प्र. १ गा. १७८. ३.७ ग्रादि । घ. २/४१६ ।

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