Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 813
________________ गाथा ७२६-७२७ पालाप/७५९ भव्वा सम्मत्तापि य, सोपी पाहारगा य उवजोगा। जोग्गा पलविदव्या अोघादेसेसु समुदायं ।।७२६।। गाथार्थ -१४ गुणस्थान, १४ जीवसमास, ६ पर्याप्तियाँ, १० प्राण, ४ संज्ञाएँ, ४ गति, ५ इन्द्रियाँ, ६ काय, १५ योग, ३ वेद, ४ कषाय, ८ ज्ञान, ७ संयम, ४ दर्शन, ६ लेश्या, भव्याभव्यत्व, ६ सम्यक्त्व, संज्ञित्वासंज्ञित्व, प्राहारकानाहारक व १२ उपयोग' ये समस्त प्रोध व आदेश में (गुणस्थान व मार्गणास्थानों में) यथायोग्य-प्ररूपणीय है ।।७२५-२६।। विशेषार्थ-ऊपर गुणस्थान आदि उपयोगपर्यन्त २० बताये हैं । उन त्रीसों का प्रोघ अर्थात् गुणस्थानों में तथा आदेश अर्थात् मार्गणास्थान में इस प्रकार से प्ररूपण करना चाहिए, जो कि आगम के विरुद्ध न पड़े। जैसे प्रथम गणस्थान में गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण आदि २०, कितने-कितने, कैसे, कव सम्भव हैं ? इसी तरह द्वितीयादि गुणस्थानों में व सकल मार्गणास्थानों में २० प्ररूपणा करनी चाहिए । जीवसमासों में विशेष श्रोघे प्रादेसे वा, सण्णीपज्जतगा हवे जत्थ । तत्थ य उरणवीसंता इगिवितिगुरिणदा हवे ठारणा १७२७।। गाथार्थ-प्रोघ (गुणस्थान) या आदेश (मार्गरणा) में संजीपर्यन्त मूल जीवसमासों का जहाँ कथन हो वहां उन्नीस पर्यन्त उत्तर जीवसमास स्थान के भेदों को एक सामान्य अपर्याप्त) तथा तीन (सामान्य, पर्याप्त व अपर्याप्त) से गुणा करने पर समस्त स्थान (जीवसमास के भेद) होते हैं। विशेषार्थ-गुणस्थानों में ब मागंगास्थानों में संजी पंचेन्द्रिय तक १ मे १६ तक जो जोब. समासों के भेद गिनाये हैं, उन्हें सामान्य प्रालाप से गुणा करने पर १६, नन्हें ही पर्याप्त व अपर्याप्त इन दो आलापों से गुणा करने पर १६४२ = ३८ भेद एवं पर्याप्त, नित्यपर्याप्त व लध्यपर्याप्त इन तीन से गुणा करने पर ५७ भेद हो जाते हैं। संक्षिप्तत:-'सामान्य जीव' इस प्रकार एक जीवममाम तथा अस व स्थावर इस प्रकार दो जीवसमास के स्थान तथा एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय ब गकलेन्द्रिय-- इस तरह जीवसमास के ३ स्थान हैं। इसी तरह क्रमश: प्रागे-आगे जीवसमास स्थानों को यथागम उत्पन्न करते हुए जीवसमास के १६ स्थान इस प्रकार होते हैं पृथ्वी, जन्न, अग्नि, वायु, नित्यनिगोद, चतूर्गतिनिगोद ये ग्रह हैं। ये बादर और मुक्ष्म सप्रतिष्ठित प्रत्येक व अप्रतिष्टित प्रत्येक भेद, द्विइन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चनुरिन्द्रिय, असजी पंच., संजी पंचे. । इस तरह सामान्य जीव रूप एक स्थान से उन्नीस भेद पर्यन्त स्थानों को १, २ व ३ से गुणा करने पर . - .१. विशेष जानकारी के लिए घवला का सम्पूर्ण दूसरा भाग देखना चाहिए। १. गो. जी. ७५-७६-७६, ५. २ पृ. ५९३ से ६.१।

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