Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गापा ७३०
पालाप/७८३
जो स्त्र-स्व लेश्या के अनुसार मरण करके देवगति में जाता है, उसी के देवगति में अपर्याप्तकाल में द्वितीय उपशमसम्यक्त्व होता है ।।७३०॥
विशेषार्थ—एक मात्र देवों में गमन का कारण यह है कि ऐसे जीव का अबद्धप्रायुष्क का तो मरण उपशम श्रेणो में होता नहीं और प्रायुबंध भी हुआ हो तो नियम से ऐसे जीव के देवायु ही सम्भव है, क्योंकि, अन्य नरक, तिर्यंच, मनुष्य प्रायु के बन्ध होने पर तो वह श्रेणी चढ़े या संयम पामाशिक संयम देश संगम) पावे, यह भी असंभव है ।' अतः उस सम्यक्त्वी के पास सत्त्व मनुष्यायु के सिवाय (मरण से पूर्व) किसी भी स्थिति में देवायू का भी बन पाता है, अन्य का नहीं। अत: गमन भी ऐसे जीव का देवों में ही होना बताया है।
माङ्का--द्वितीयोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति किस गुणस्थान वाले जीव के होती है ?
समाधान-मात्र असंयत सम्यक्त्वी से अप्रमत्तसंयत तक के किसी भी गुणी के इसकी उत्पत्ति सम्भव है।
शंका-द्वितीय उपशम सम्यक्त्व किसे कहते हैं ?
समाधान-उपशम श्रेणी चढ़ते समय क्षयोपशम सम्यवत्व से जो उपशम सम्यक्त्व होता है उसे द्वितीयउपशम सम्यक्त्व कहते हैं।
शङ्का-सारतः द्वितीय उपशम सम्यक्त्व कहाँ-कहाँ सम्मन्न है ? समाधान—पर्याप्त मनुष्यगति में व निर्वृ त्यपर्याप्त देवगति, इन दो में ।'
शंका-द्वितीयोपशम सम्यक्त्वी इम द्वितीयोपशम सम्यक्त्व काल के भीतर छह प्रावली के शेष रहने पर सामादन को भी प्राप्त हो सकता है क्या?
समाधान-हाँ, पर यह उपदेश कषायप्राभूत चूणिसूत्र' (यतिवृषभ प्राचार्य कृत) के अनुसार है। किन्तु भगवान् भूतबली के उपदेशानुसार उपशम श्रेणी से उतरा हुमा मामादन गुणस्थान को प्राप्त नहीं करता है । प्रज्ञाभाव में उभयमन यावत् केवलीसन्निधि सङ्ग्रहणीय है।
१. हंदि तिसु प्राधासु एकेग वि बद्धेगा गा सको वासाए जसमामेनु, तेरण कारणेग गिग्य-तिरिक्ख-मरणासदियो ग गच्छदि । ध. ६१३३१॥ दगी. क. ३३४-३३५ व लब्धिसार भ. ३५१ । २. गो. क. ३३४-३५, गो.जी. ६५३ । ३. ब, १।२११-१२ व कर्मप्रकृति [प्रवे.] ग्रन्थ पृ.२६७ तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा या. ४८४ टीका, मूलाचार ।१२।२७५ टीका ४. (i) ध. २/४३४, (ii) पर्याप्तमनुष्यसंयमिन एव द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं भवति इति धवलायां द्वितीय पुस्तके ७२६ पृष्ठे लिखितम् । पर्याप्तावस्थायाञ्च द्वितीयोपणमसम्पक्विनो देवगतिः एव [घ, २ पृ. ८२१] इति आगमवचनाच्च । ध. २१५३८ । ५. एदिरसे उवममसम्मत्तद्धाप मम तरदो असंजमं दि पच्छेज्ज, संजमासं जम पि गच्छद्रेज, दो वि गच्छेज्ज । इस प्रावलियासु मेमासु प्रामाण पि गच्छेज्ज ।। ५४२-५४३ सूत्र, १४ चारिक उप. प्रधि.पतमान उपणामकक्रियाविशेष पृ. ७२६ कापायपाइसुत्त चगि मुत्रमय | ६. उवमममेडिदा प्रादिधगाण मासण-मरणा भावादो तिपि कदो गावदे? एदम्हादो वेव भूदबली-षयणादी [यत् 'सासादनानां जघन्यन पल्योपमासंख्येय-मागप्रमितमन्तरम। ध. ५ पृ. ११। *घ. ६।३३१ व ल. सा. ३४८, ३५० [प्रत्र मतद्वयं निरूपितं वर्तते ।