Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाया ७३३
पालाप ६७
कहे जाते हैं, यथा "प्रारणो व जीव” दोनों शब्द यात्मा (आत्मा नामक अर्थ ) के ही वाचक हैं।
ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं ।' अथवा श्रुतज्ञान के विकल्प को नय कहते हैं । अथवा प्रमाण (सम्यग्ज्ञान) के द्वारा सम्यक प्रकार से गृहीत वस्तु के एकधर्म अर्थात् अंश को ग्रहण करने वाले ज्ञान को नय कहते हैं । अथवा जो नाना स्वभावों से हटाकर किसी एक स्त्रभाव में वस्तु को प्राप्त कराता है, बह नय है । अथवा यों कहा जा सकता है कि वस्तु के अंश को ग्रहण करने वाला नय होता है । अथवा यों भी कहा जा सकता है कि वस्तु की एकदेश परीक्षा नय का लक्षण है । ५
यह नय प्रमागा के अवयव रूप होता है। इसके मूलतः दो भेद होते हैं १. द्रव्याथिका २. पर्यायाधिक अथवा यों भी कहा जा सकता है कि नयों के ये मूल दो भेद हैं १. निश्चय २. व्यवहार ।। इन्हीं मूलन यय के उत्तरभेद संख्यान या असण्यात अथवा अनन्त तक भी होते हैं।
सकल बस्तु का ग्राहक प्रमाण होता है। जिस जान के द्वारा वस्तु-वरूप जाना जाता है, निश्चय किया जाता है, वह ज्ञान प्रमाण है।
सारतः अनियन अनेक धर्मविशिष्ट वस्तु (सम्पूर्ण वस्तु) को विषय करने वाला प्रमाण होता है और नियन एकधर्मविशिष्ट वस्तु को विषय करने वाला नय होता है ।
जिस त्रिया, प्रत्यय आदि के द्वारा, जिस अर्थ में शब्द की निष्पत्ति होती है, उमको उमी प्रकार से कहना निरुक्ति है। जैसे "जो जीता है, जियेगा और पूर्व में जी व का है, उसे जीव कहते
जीव ग्रादि पदार्थों के जानने के उपाय विशेष को अनुयोग कहते हैं । वे ये हैं (६ भेद) निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान |
इस प्रकार इन उपयुक्त निक्षेप, एकार्थ, नय, प्रमाग, निरुक्ति व अनुयोग के द्वारा जो पूर्व कथित २० प्ररूपणानों को जानता है, वह आत्मा के स्वरूप को जान लेता है ।
इस प्रकार मोम्मटमार जीवाड़ में पालाप प्ररूपणा नामक बाईसवा अधिकार पूर्ण हमा ।
१. प्रा. पति १५१, धवला । २. पा. प. १८१ एवं समयसार सा.पू. १५०। ३. प्रा. प. १८१, स्याद्वाद मजरी ३१०। ४. स्वा. काति, अनु गा, २६३ । ५. प्रवचनसार १८१ ता. वृ. ६. प्रा. प नयाधिकार ३६७, प. १०१२ एवं म. सि. १।३३ ८. मा. प. ७७ । सकलवस्तुग्राहक प्रमाण, प्रमीयते, परिछिइते वस्तुतत्त्वं येन ज्ञानेन तन्त्रमारणम् । अथवा सम्यग्ज्ञान प्रमारणम् प्रा. पं. ३४ है. रा. बा. १/४/७ जीवति, अजीवत् जीविष्यति इति वा जीवः । स्वा. कानि. प्र. ११- लोकानुप्रेक्षा । गा. १३६ टीका १०.त-सू. ११७ ।