Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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७८६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ७३३
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| मु. | जी. ! प.
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प्रा. | सं.
(पूर्व की गाथा में कथित सिद्धगति, केवलज्ञान, केवलदर्शन, भायिक सम्यक्त्व व अनाहार इन ५ को छोड़कर) शेष नौ मार्गरगाएँ नहीं। प्रनीत पायी जाती हैं। ये सदा मिद्ध तथा शुद्ध ही रहते हैं। (क्योंकि,
प्रतीत उनका पुनः अशुद्धावस्था से लेप असम्भव है ।) ।।७३२।।
प्रतीत विशेषार्थ - स्पष्टीकरणार्थ मिद्धों में बीस धरूपणा में से गुणस्थान प्रादि प्ररूपणा इस प्रकार की जा सकती है. यथा-सिद्धों
प्रतीत के अतीत गुणस्थान, प्रतीत जीवसमास, अतीतपर्याप्ति, प्रतीत प्राण, क्षीरसंज्ञा, सिद्ध गति, [अथवा प्रगतित्व (चार गति के क्षीण सं. अभाव की अपेक्षा)] अतीत जाति, अकाय, अयोग, अपगतवेद, अकषाय, केबलझान, संयम, असंयम और संयमासंयम इन विकल्पों
सिद्धगति से मुक्त, केवल दर्शन, द्रव्यभावतः अलेश्य, भव्याभव्यविकल्प
अतीन्द्रिय रहित, क्षायिक सम्यक्त्व, संज्ञिकासंज्ञिक विकल्पातीत, अनाहारक, साकार-अनाकार दोनों उपयोगों से युगपत् उपयुक्त – इस प्रकार | प्रतीतकाय प्ररूपणा है।'
प्रयोगी २० भेदों के ज्ञान का उपाय व फल
अपगनवेद णिक्खेदे एयत्थे,णयप्पमाणे णित्ति प्रणियोगे। मग्गइ वीसं भैयं, सो जारगइ प्रप्पसम्भावं ॥७३३।। । क्षीणकपाय
गाथार्य-जो निक्षेप में, एकार्थ में, नय में, प्रमाण में तथा मा केवलज्ञान निगक्ति व अनुयोग में २० भेदों को जानता है, वह प्रात्म सद्भाव को जानता है।
अनुभय विशेषार्थ -जो किसी एक निश्चय या निर्णय में क्षेपण करता
केवलदर्शन है अर्थात् जो अनिर्णीत वस्तु का उसके नामादिक द्वारा निर्णय
ग्रलेय कराता है, उसे निक्षेप कहते हैं । ' अथवा यों भी कह सकते हैं कि अप्रकृत अर्थ का निराकरण करके प्रकृत अर्थ का निरूपण करने
अनुभय बाला निक्षेप है। अथवा संशय, विपर्यय व अनध्यवसायरूप विकल्प से हटाकर जो निश्चय में स्थापित करता है उमे निक्षप कहते है।
क्षायिक
, अथवा वाह्य अर्थ के सम्बन्ध में जितने विकल्प होते हैं, उनका जो कथन करता है उसे निक्षेप कहते हैं।' तथा वह नाम, स्थापना,
भनुभय द्रव्य ब भाव के भेद से ४ प्रकार का होता है।'
अनाहारक प्राणभूत असाधारण लक्षण एकार्थ कहा जाता है । यथा जीव
गाकार-अनाकार का लक्षण चेतना । अथवा एक ही है अर्थ जिनका, वे शब्द एकार्थ
युगपत् १. ध. २/४५१/५७०८५५/५६२ .. ........१८५५ प्रादि । २. घ. १११ ३. घ. १३।३ जयघवला । ४, घ, १३१६ | ५. ध. १३/४९८ ।
सिद्धो के २० प्ररूपमा
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ज्ञा. । संय. द. | ने. . म. | न. | मनि .