Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ७३२
पालाप/७८५
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दर्शन व वीर्य (ये चार क्षायिक) एवं जीवत्व (१ पारिगा।मिक भाव) ये चुन्न ५ भाव होते हैं।' साथ ही सिद्धों के क्षायिकदान गुराग भी है, क्षायिकवीर्य' की तरह, यह विशेषतया ज्ञातव्य है । इम प्रकार सिद्धों के उपयुक्त सिद्धगति, केवलजासादि के साथ माणिव दीर्ग, करिषदा, अयिक चारित्र आदि गुणों का अस्तित्व भी ज्ञातव्य है । यद्यपि यहाँ पर कथन तो इस बात का है कि विशतिप्ररूपणाओं में से सिद्धों के कौन-कौनसी प्ररूपणा हैं ? इसी सन्दर्भ में कहा गया है कि सिद्धों में २० प्ररूपणाओं में से गाथोक्त सिद्धगति, केवलज्ञान, केवलदर्शन, मम्यवत्व आदि षट् प्ररूपणा तो है और अागामी गाथा में बतायेगे कि शेष (२०-६=१४) चतुर्दश प्ररूपणा रहित (यथा गुणस्थानातीत ग्रादि हैं, परन्तु केवलज्ञान, केवल दर्शन व सम्यक्त्व ये सिद्धों के क्षायिक गण भी हैं। अतः अन्य भी सिद्धों के क्षायिक गुणों के अस्तित्व के संकेतार्थ उपयुक्त भावों विषयक कथन कर दिया गया है।
शंका--कषायमार्गगा व वेदमार्गणा के प्रभाव होने पर उन्हें अकषाय गुणमय प्रादि कहा जा सकता है या नहीं?
समाधान-क्यों नहीं ? कषाय, वेद प्रादि के अभाव होने से सिद्धों में प्रकपायत्व, अवेदत्व ग्रादि गुण भी होते हैं, ऐसा कहना शास्त्र से अविराद्ध है।'
शखा -तो फिर मार्गगणा के प्रभावों की अपेक्षा तो सिद्धों के निर्योगत्व, निरिन्द्रियत्व आदि गुगा भी कहे जा सकते हैं?
समाधान-क्यों नहीं, सिद्धों के निर्गतित्व, निरिन्द्रियत्व, निकषायत्व, निर्योगत्व, निर्वेदत्व आदि गुण भी कहे जा सकते हैं ।
शंका--सिद्रों में आपने चारित्र कहा, सो मिद्धों के चारित्रगुगा कैसे गम्भव है ? कर्मकाण्ड (गा. ८१६-८२१) में तो चारित्रगुण सिद्धों में गिनाया नहीं ?
समाधान-सिद्धों में भी अकरायरूप चारित्रगुण है, उनके चारित्रगुण की निर्मलपर्याय है। पूर्व में भी ऐसा कहा जा चुका है । वहाँ कर्मकाण्ड में सामान्य से कथन है, कहीं बारित्रगुण या क्षायिक चारित्र का सिद्धों के, वहाँ पर निषेध थोड़े ही किया गया है।
मिद्ध किन-किन से रहित हैं - गुरगजीवठाणरहिया, सणापज्जत्तिपारणपरिहीरणा ।
सेसरणवमग्गणणा सिद्धा सुद्धा सदा होति ।।७३२॥ गाथार्थ -सिद्ध गुणस्थान, जीवसमास, संज्ञा, पर्याप्ति व प्रारण इनमे रहित होते हैं । नथा इनके
१. गो. क. ८२१, ८२२, ८१६ । २. स. सि. २१४ परमानंदाव्यायाधरूपेण तेषां, [क्षायिकदानादीनां] तप [सिद्ध] तिः अस्तित्वमिति] प. प्र. १२७, २ टीका भाषा।*रा. बा.२/४/७। ३. अकषायमवेदत्तं प्रकारयत्त विदेहदा मेव । प्रचलतमलेपत्तं च होति अचंति याई से ।।३१।। घ, १३11०। ४. विशिष्टभेदनयन निर्गतित्वं, निरिन्द्रियत्व, निष्कायत्व, निर्योगत्व, निबॅदावं, निष्कापायत्यम् ....... इत्यादिविशेषगुणा:... ... . . सं. गा. १४ ठीका [सं.]