Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 818
________________ ७८४/गो. सा. जीवकाण्ड गाथा ७३१ शङ्का-गाथा में "मग-सग लेस्सा भरिदे" को पढ़कर एक घर्चा उठती है, कि किस-किस लेश्या से द्वितीयोपशमसम्यवत्वी कहाँ जन्मेगा? तथा इन सम्यग्दृष्टियों का उत्पाद देवों में कहाँ से कहाँ तक होता है ? समा ...इसे ही कहा जाता है देवक मायाव को उपशमा करके और उपशम श्रेणी पर चढ़कर फिर वहाँ से उतरकर प्रमन्नमयत, अप्रमत्तसंयत, असंयत और संयतासंयत उपशमसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों से मध्यम तेजोलेश्या को परिमाकर और मरण करके सौधर्म-ऐशान कल्पवासी देवों में उत्पन्न होने वाले जीवों के अपर्याप्तकाल में प्रीपशमिक सम्यक्त्व पाया जाता है। तथा, उपयुक्त गुणस्थानवी ही उत्कृष्ट तेजोलश्या अथवा जघन्य पद्मलेश्या को परिणमाकर यदि मरण करते हैं तो प्रौपशमिक सम्यक्त्व के साथ सानतकुमार और माहेन्द्र कल्प में उत्पन्न होते हैं। तथा, वे ही उपशम सम्यग्दृष्टि जीव मध्यम पद्मलेश्या को परिणमाकर यदि मरण करते हैं, तो ब्रह्म आदि ६ कल्पों में उत्पन्न होते हैं । तथा, वे ही उपशममम्यग्दृष्टि जीव उत्कृष्ट पद्मलेश्या को अथवा जघन्य शुक्लले श्या को परिणमाकर यदि मरण करते हैं तो औपशमिक सम्यक्त्व के साथ ग्यारहवें बारहवें स्वर्ग के देवों में उत्पन्न होते हैं। तथा उपशम श्रेणी पर चढ़ करके और पूनः उतरे बिना ही मध्यम शूबल लेश्या से परिणत होकर यदि मरण करते हैं तो उपशम सम्यक्त्व के साथ तेरहवें ग्रादि नवमें ग्रे ग्रेवेयक तक इन १३ में उत्पन्न होते हैं। तथा पूर्वोक्त उपशम सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या को परिणमाकर यदि मररग करते हैं तो उपशम सम्यक्त्व के साथ नौ अनुदिश और ५ अनुत्तर बिमानवामी दे में उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार लेश्यानुसार मरण कहा । तथा इस (उपर्युक्त) कारण से मौधर्म स्वर्ग से लेकर ऊपर के सभी (यानी सर्वार्थसिद्धि तक के) असंयत सम्यग्दृष्टि देवों के अपर्याप्त काल में प्रौपशमिक सम्यक्त्व पाया जाता है।' गुणस्थानातीत सिद्धों का स्वरूप सिद्धारणं सिद्धगई केवलरणारणं च दंसणं खयियं । सम्मत्तमरणाहारं उवजोगारणक्कमपउत्तो ॥७३१॥ गाथार्थ-सिद्धों के सिद्धगति, केवलज्ञान और केवल दर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, अनाहार और ज्ञानोपयोग व दर्शनोपयोग की युगपत् प्रवृत्ति होती है ।।७३१।। विशेषार्थ-सिद्धों के नाम कर्मोदयकृत ४ गति, अशुद्ध ४ ज्ञान, ३ दर्शन तथा वेदक या उपशम (दोनों) सम्यक्त्व अथवा मिथ्यात्व सासादन या मिथ भाव व ग्राहार (कर्म-नोवार्म का) एवं ज्ञान-दर्शन की क्रमवृत्ति नहीं होती है, यह इस गाथा से फलित होता है । अन्य बात यह है कि सिद्धों के ही क्या-क्या भाव हैं, इस सन्दर्भ में इसी ग्रन्थ के कर्मकाण्ड में इस प्रकार कहा गया है मौपशमिक, क्षायिक, मिश्र, औदायिक व पारिणामिक इन पाँच भावों में से सिद्धों के क्षायिक व पारिणामिक ये दो भाव होते हैं। तथा इन्हीं दो के उत्तरभेदों की अपेक्षा सिद्धों के सम्यक्त्व, ज्ञान, १.ध.२/५६२ ।

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