Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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७८२ / गो. सा. जीवकाण्ड
शंका- परिहारविशुद्धिसंयम, उपशम सम्यग्वष्टि मुनिराज के क्यों नहीं हो सकता है ?
समाधान- इसका कारण यह है कि मिध्यात्व से पीछे प्राये हुए प्रथमोपशम मम्यग्दृष्टि जीव तो परिहारविशुद्धिसंयम को प्राप्त होते नहीं हैं, क्योंकि, प्रथम उपशमसम्यक्त्व का काल तो बहुत थोड़ा है, इसलिए उसके भीतर परिहारवि द्धिसंयम की उत्पत्ति के निमित्तभूत विशिष्ट संयम, तीर्थकर चरणमूल वसति प्रत्याख्यान महासमुद्र का पढ़ना आदि गुणों के होने की सम्भावना का प्रभाव है श्रीर न उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाले द्वितीयोपशम सम्यग्दष्टि जीवों के भी परिहारविशद्धि संयम की सम्भावना है, क्योंकि, उपशमश्रेणी पर चढ़ने से पूर्व ही जब अन्तर्मुहूर्तकाल शेष रहता है तभी परिहारविशुद्धि संयमी अपने गमनागमनादि बिहार को बन्द कर लेता है और न उपशम श्रेणी से उतरे हुए द्वितीयोपशमसम्यक्त्व संयत जीवों के भी परिहारविशुद्धि की सम्भावना है, क्योंकि उपशमसम्यक्त्व के नष्ट हो जाने पर परिहारविशुद्धिसंयमी का पुनः विहार सम्भव
गाथा ७३०
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शंका – देवगति को जाने वाले मुनि के (श्रेणी से उतरकर) गमन के समय (विग्रहगति में गमन के समय ) अपर्याप्तावस्था में द्वितीयोपशम सभ्यतत्व पाया जाता है, अतः वहाँ परिहारविवृद्धि बन जाओ ?
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गमन के समय म समाधान नहीं, क्योंकि उस समय उस द्वितीयउपशममम्यक्त्वी के चतुर्थगुणस्थान पाया जाता है । तथा चौथे गुणस्थान में परिहारविशुद्धिसंयम का उपदेश ग्रागम में नहीं है।
शंका- परिहारविशुद्धिसंयत के ५ संयमों में से कितने संयम होते हैं ?
समाधान-एक परिहारविशुद्धिसंयम ही होता है ।
अथवा ऐसा परिहारविशुद्धिसंयत अन्य संयम को भी धारण करता है, यथा जो ५ समिति और ३ गुप्ति से युक्त होता है, सदा ही सर्वमाद्य योग का परिहार करता है तथा ५ यम रूप छेदोपस्थापना संयम को और एक यमरूप सामायिक संगम को धारण करता है, वह परिहारविशुद्धि संयत कहा जाता है ।'
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इस प्रकार चारों में से एक मार्गसा हो एक जीव में होती है. ऐसा कहकर अब आगे द्वितीयोसम्यक्त्व के मरण के बारे में आचार्यश्री कहते हैं
बिदिवसमसम्मत्त सेदोदोदिपिण अविरदादीसु । सग-सगले सामरिदे देवप्रपज्जत्तगेव हवे ||७३० ॥
गाथार्थ --उपशम श्रेणी से नीचे उतरने पर प्रसंयत श्रादि गुणस्थानों को पाने वाले जीव म
१. ध. २/६२२-२३ । २. ६. १/४०६, गो. जी. ७३० किञ्च तस्मिन् विग्रह-काले देवगतित्वाच्चतुर्थ- गुगाथाना दुपरितनगुणस्थानं न सम्भवति । षट् नं. १ / १६६ । ३. परिहारमुद्विसजदाणं भगमा प्रत्थि दो गुणा (मत मत्तगुणारि ) ध. २ / ७२४ घ १/३७६, ३०४ । ४. पमत प्रप्पमत परिहार सुद्धिसंजदागं, परिहारसंजमो को चेत्र । ५. पंत्र समिदो ति-गुत्तो परिहरइ मदा बिजी हुसावज्ज । पंचममेय नमो वा परिहारो मंजदो सी है । १८६ / १/३०४: प्रा. पं. सं. ११३१. २८ संस्कृत पं. सं. १ । २४१ ।