Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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७५०/गो. सा. जीवकाण
गावा ७२८.७२६
यथाक्रम १६ भेदस्थान, ३८ भेदस्थान और ५० भेदस्थान होते हैं। यही विशिष्ट स्पष्टीकरण नहीं किया जा रहा है क्योंकि इसी ग्रन्थ में पहले विस्तृत कथन किया जा चुका है।' अब 'गुणजीया पज्जत्तीपाणा...'इस गाथा द्वारा कथित विशति भेदों की योजना करते हैं
वीरमुहकमलरिणग्गयसयलसुयग्गहणपयउरणसमत्थं ।
गमिऊरण गोयममहं, सिद्धतालावमणुबोच्छं ॥७२८।। गाथार्थ –महावीर स्वामी के मुख-कमल से निकले सकल श्रुत को ग्रहण करने एवं उसे प्रकट करने में सक्षम गौतम गणधर को नमस्कार करके अब मैं सिद्धान्तालाप काहूँगा ।।७२८।।
तो का
विशेष-ग्रन्थ का नाम गोम्मटसार है । अतः इसमें २० प्ररूपणा का कथन सार रूप में किया गया है। यही स्थिति सिद्धान्तालाप की भी है। सिद्धान्तसम्बन्धी मुख्य मुद्दे प्राचार्यश्री द्वारा प्रागे ६-७ गाथाओं में कह दिये गये हैं। सिद्धान्तालाप का मतलब सिद्धान्तविषयक कुछ मुस कथन । इतना ही यहाँ प्राचार्य श्री को सिद्धान्तालाप' से इष्ट रहा है। विस्तार से निरूपण पट खण्डागम की धवला टीका की दूसरी पुस्तक (पृ. ४१८ से लेकर अन्तिम पृष्ठ पर्यन्त) से समझना चाहिए । ग्रन्थ के अत्यधिक विस्तार के भय से यहाँ वह प्ररूपणा नहीं की जा रही है ।
सिद्धान्तालाग कथन में ध्यातव्य नियम मणपज्जवपरिहारो पतमुवसम्मत्त दोपिरण पाहारा।
एदेसु एक्कपगवे गस्थित्ति असेसयं जाणे ।।७२६।।" गाथार्थ-मनःपर्य यज्ञान, परिहार विशुद्धिसयम, प्रथमोपशम सम्यवत्व और ग्राहारकद्वय (आहारक व आहारकमिथ) इन चारों में से एक के होने पर अन्य तीन भेद नहीं होते, सा जानना चाहिए ।।७२६।।
विशेषार्थ- उपयुक्त ४ मार्गणामों में से किसी एक के होने पर (किसी जीव के) शेप ३ मार्गणाएँ नहीं होती हैं। यथा, किसी जीव के मनःपर्यय ज्ञान है तो उसके परिहारविशुद्धिसंयम, प्रथमोपशमसम्यक्त्व व 'ग्राहारकशरीर व आहारक अंगोपांग ये तीनों नहीं होंगे, ऐमा जानना चाहिए ।।७२६।।
शंका- तब इस तरह से तो याहारककाययोगी व प्राहारकमिथ काययोगी मुनिराज के उपशम सम्यक्त्व हो, यह सम्भव नहीं है ?
समाधान- नहीं, ऐसे मुनिराजधी के भायिक व क्षायोपामिक-ये दो मग्यवत्व ही बन सकने
१.गो. जी. ७७-७८५ ३-मे७६२. गो. जी. ३॥वं गो. जी. ७२६ तथा ध. २/१२॥ प्रा. पं. गं.१/२। ३. सिद्धानाचार्य पण्डितकलागवतमहोदयानां प्रकथनानुसारेण लिखितम् । ४. प्रा. पं. सं. १/१/१६४१.४१ एवं सं. पं. सं. १/३४० एवं घ.१/८२४ गा. २४०। पर तत्र पूर्वार्ध मरणपज्जव परिहागे 'उवसमसम्मस दोषिया याहारा इसि पाठः तदपि 'पदम्बमम्मत्त' इत्यस्य पाटस्योचितवं प्रतिभानि टीकाकारः]