Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
७७६ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाचा ७२४
गाथा
पर्यागत ( पर्याप्तावस्था में ही जो हों) ग्यारह योगों में अपना-अपना एक पर्याप्त ही आलाप होता है। शेष चार मिश्रयोगों में अपना एक अपर्याप्त आलाप होता है ।। ७२३ ।।
विशेषार्थ - ग्यारह पर्याप्तिगत योग ये हैं-४ मनोयोग, ४ बचनयोग, एक प्रौदारिककाययोग, एक आहारक काययोग, एक वैक्रेयिक काययोग । ४ मिश्रकाययोग ये हैं- प्रदारिक मिश्र काययोग, आहारकमिश्र काययोग, वैक्रेमिकमिश्र काययोग, कार्मण काययोग । शेष कथन सुगम है ।
गाथार्थ - वेदमागंणा से आहारमार्गणा पर्यन्त अपने-अपने गुणस्थानवत् (यानी जिस वेद यदि मार्गणा में जो-जो गुणस्थान सम्भव हों, व उनमें मूल गुणस्थानों में प्रालाप जो-जो होते हैं, वे ही उन-उन मार्गणाओं के समझने चाहिए ) इतनी विशेषता है कि नपुंसक व स्त्री के प्राहारकद्विक नहीं है || ७२४ ||
विशेषार्थ - शंका - आहारक काययोगी व तन्मियोगी को नपुंसक व स्त्रीवेद क्यों नहीं
होता ?
शेष मार्गाओं के श्रालापों का कथन
दादाहारोति य सगुणट्टारणारणमोघ श्रालाप्रो ।
वरिय संहित्थी, गत्थि हु आहारगारग दुगं ।। ७२४ ||
समाधान - क्योंकि अशुभवेदों के साथ आहारकऋद्धि नहीं उत्पन्न होती है ।"
वेद मार्गणा से श्राहार मार्गणा तक बालाप
सम्भवगुणस्थान
मार्गरणा
वेद मार्गरणा
स्त्री नपुंसक वेद
पुरुपवेद
कषाय मार्गणा
क्रोध, मान, माया व लोभ
१६ सवेद भाग पर्यन्त | स्त्री- नपुंसक के १, २, ४ में आलाप त्रय । शेष गुणस्थानों में पर्याप्त आलाप | इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदी के ये गुणस्थान में पर्याप्तालाप |
पु. वेदी के १, २, ४, ६ में श्रालापत्रय । शेष में पर्याप्तानाप
こ
१ से १० के अन्त तक
सम्भव श्रालाप
१. गो. क. गाथा ३१६ . २/६६८ ।
१, २, ४, ६ में ग्रालापत्रय । शेष में पर्याप्तयाला चारों कायों में पृथक-पृथक भी इसी तरह समझना इतना
विशेष है कि क्रोध, मान, माया में तक गुणस्थान व लोग में १० तक हैं ।