Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 809
________________ गाथा ७२० ७२३ आलाप / ७७५ गाथार्थ - चादर व सूक्ष्म एकेन्द्रिय, द्वि-त्रि- चतुरिन्द्रिय व प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय इन जीवों में से जिनके पूर्ण यानी पर्याप्त कर्म का उदय है, उनके तीन बालाप और जिनके पर्याप्त नाम का उदय है उनके एक पूर्ण यानी अपर्याप्त ही चालाम होता है । ७१६॥ विशेषार्थ यहाँ जिनके अपर्याप्त नाम का उदय है उनके अपर्याप्त में से भी लब्ध्यपर्याप्त आलाप ही होगा, निर्वृत्यपयप्ति आलाप नहीं। बाकी निवृत्यपर्याप्तिजीव के तो तीनों आलाप हो जाते हैं। शेष कथन सुगम है। सीधे मिच्छे गुणपडवण् य मूलप्रालाना । लद्धियपुष्णे एक्कोऽपज्जत्तो होदि मालाश्रो ।।७२०॥ गाथार्थ- संत्री के ( संज्ञी पंचेन्द्रिय) गुणस्थानों में से मिथ्यादृष्टि के और गुगास्थान प्रतिपन्न के. के समान ही यालाप होते हैं। लब्ध्यपर्याप्त संज्ञी के एक है |||७२० मूल पर्याप्त ही श्रालाप होता विशेषार्थ - संज्ञी पंचेन्द्रिय में आदि के १४ गुणस्थान होते हैं। संज्ञी के प्रथम गुणस्थान में सभी प्रालाप होते हैं तथा गुणस्थान प्रतिपन्न ( ऊपर के गुणस्थानों में चढ़े संज्ञी) के मूल के समान ही आलाय जानने चाहिए [ यानी सासादन, असंगत सम्यग्वष्टि, प्रमत्त व सयोगी के तीन-तीन आलाप तथा अन्य गुणस्थान मिश्र, देशबिरत व अप्रमत्तादि अयोग्यन्त के संजी पंचेन्द्रियों में मात्र पर्याप्त ही बालाप होता है । । काय मार्गणा में आलाप भूमाउतेउवाकरिणच्चचदुग्र्गादिरिगोदगे तिष्णि ताणं थूलेदरसु वि पत्तेगे तद्दुभेदे वि ॥ ७२१ ।। तसजीवाणं श्रघे, मिच्छादिगुणे वि प्रोघ श्रालाप्रो । पुणे एक्कोsपज्जती होदि प्राला ।। ७२२ ।। गाथार्थ - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, नित्य व चतुर्गति निगोव इनके बादर व सूक्ष्म, प्रत्येक वनस्पति, संप्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित प्रत्येक इन सभी में तीनों आलाप होते हैं। त्रसों में, चौदह गुणस्थानों में गुणस्थानवत् ही श्रालाप जानने चाहिए। उपर्युक्त सभी जीवों में (पृथ्वी से सकाय तक ) लब्ध्यपर्याप्तकों के एक पर्याप्त श्रालाप ही होता है ।। ७२१-७२२ ।। योगमाया में आलाप एक्कारसजोगार, पुण्गगदाणं सपुण्यश्रालायो । मिस्सचउवकस्स पुरो सगएकक पुण्यालाश्रो ||७२३|| १. प्र. २/५६१ । २.२ / ५०६ ।

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