Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
७६४/गो, सा. जीव काण्ड
गाथा ७०४
प्रथम गणस्थान में होते हैं। पर मतांतर से ये ही मात्र अपर्याप्त, द्वितीय गुणस्थान में भी होते हैं, पर संज्ञी तो द्वितीय गुणस्थान में पर्याप्तापर्याप्त दोनों होते हैं।
स्थावरकाय- इनमें पर्यापतों व अपर्याप्तों का मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान में ही होना सम्भव है। [मतान्त
रानुसार बादर जल, पृथ्वी, बनस्पति के अपर्याप्त द्वितीय गुणस्थान में सम्भव हैं।]
गूरणस्थानों में योग
तिसु तेरं इस मिस्से सत्तसु एव छट्ठयम्मि एयारा ।
जोगिम्मि सत्त जोगा प्रजोगिठाणं हवे सुण्णं ।।७०४॥ गाथार्थ ---तीन में तेरह, मिश्च में दस, सात में नौ, छठे में ग्यारह, सयोगी में सात योग तथा अयोगीस्थान शून्य होता है ।।७०४।'
विशेषार्थ-तीन अर्थात् प्रथम, द्वितीय व चतुर्थ गुणस्थान में १३ योग होते हैं। यानी कुल १५ योगों में से प्राहारक व आहारकमिश्र को छोड़कर अन्य १३ योग, १,२ व ४ गुगास्थान में होते हैं। मिश्र यानी सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान-तीसरे गुणस्थान में उक्त तेरह में से वैकेयिकमिश्र, प्रौदारिकमिथ व कामगा, इन तीनों को घटाने पर अवशिष्ट रहे १० योग होते हैं। छठे गुणस्थान में इन दस में से वैकेयिक घटाकर अाहारकद्विक योग जोड़ने पर कुल ११ योग होते हैं । तथा सात में नौ यानी संयतासंयत पाँचवा गुणस्थान व सातवें से १२ वें गुरास्थान तक के छह गुणस्थान, इन कुल ७ गुणस्थानों में उक्त दस में से वैयिक योग घटाने पर शेष बचे योग होते हैं । सयोगीकेवली में सत्य व अनुभय वचन व मनोयोग तथा औदारिक, औदारिकमिश्र व कार्मरण ऐसे ७ योग होते हैं। अयोगी में कोई योग नहीं होता 1 अब वेद आदि मार्मणानों को भी संक्षिप्त तथा गुणस्थानों में बताते हैं - .. मार्गरणा
किन गुणस्थानों में ? वेदमार्गणा .तीनों ही वेद नौवें गुणस्थान में प्रथम सवेद भाग पर्यन्त होते हैं । कषायमार्गणा –इनमें से चारों अमन्तानुबन्धी कषायें प्रथम व द्वितीय गुणस्थानों में उदय को प्राप्त ४ क्रोध कषाय होती हैं, आगे नहीं। तीसरे गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी बिना शेष तीन (प्रकार ४ मान कषाय की ४-४) कषायें (उदित) रहती हैं। पाँचवें गुगास्थान में अनन्तानुबन्धी व ४ माया कषाय अप्रत्याभ्यान इन दो बिना अवशिष्ट दो कषायं रहती हैं। छठे गुगास्थान से लेकर ४ लोभ कषाय अनिवृत्तिनामक नवम के दूसरे भाग तक एक मात्र कपाय (चारों सज्वलन कषायें)
रहती हैं। तृतीय भाग में संज्वलन क्रोध बिना तीन कमायें रहती हैं, चतुर्थभाग में संज्वलन माया व लोभ ये दो ही रहती हैं । तथा पंचम भाग में लोभ ही रहती है।
१. तिसु तेरेगे दस गाव सत्तम् इनकम्हि हुँति एक्काग।
इम्हि मसकोमा अजोबटाणं हवद सपण ||७४|| प्रा. पं. सं.पातका.१०३वं सं. पं. सं.। १२-१३ पृ.१२। २. पन दशयांगानां नामानि पूर्वम् (२१६-२४१ गाथा पर्यन्त) इत्येनासु गाथाम् प्रोक्तानीति नोच्यन्ते । ३. धवल २/४३५-४३९ ।