Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
गाथा ७०३
अन्न व/७६३ गाथार्थ-- गुणस्थानों में मार्गणा व उपयोग सुगम हैं, क्योंकि, पूर्व में कह पाये हैं। क्योंकि गत्यादि मार्गणामों में मिथ्याष्टि' आदि के कहने से उनका कथन हो ही जाता है ।।७०३।। गुणस्थानों में मार्गणा का कथन इस प्रकार है--
मार्गरणा
किस गुणस्थान में गति मार्गणा-प्रथम चार मृगास्थानों में नरकगति होती है । वहाँ प्रथम गुणस्थान में पर्याप्त व अपनरकगति र्याप्त नरकगति होती है। द्वितीय गुणस्थान में नरकगति पर्याप्त ही होती है । तृतीय
गृणस्थान में नरकगति पर्याप्त ही होती है । चतुर्थ गुणस्थान में नरकगति के जीव अपर्याप्त, पर्याप्त प्रथम नरक में, पर शेष नरकों में नरकनि पर्याप्त हो (चतुर्थगुणस्थान
में) होती है। तिथंचगति -आदि के ५ गुरणस्थानों में नियंचगति सम्भव है। वहीं प्रथम व द्वितीय गुणस्थान में
तिर्यचगति पर्याप्त व अपर्याप्त होती है । तृतीय में नियम से पर्याप्त । चतुर्थ में पर्याप्त ही, पर भोगभूमि की अपेक्षा अपर्याप्त भी। पंचम गुणस्थान में तिर्यंचगति नियम से
पर्याप्त होती है। मनुष्यगति -सभी गुणस्थानों में मनुष्यगति मार्गणा के जीव सम्भव हैं । वहाँ प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ,
षष्ठ व त्रयोदश-इन पाँच गुणस्थानों में मनुष्यमति पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों तथा शेष
गुणस्थानों में पर्याप्त मनुष्य गति ही होती है। वेवगति -यह चार गुणस्थानों में सम्भव है । वहाँ प्रथम, द्वितीय व चतुर्थ गुणस्थान में देवगति
पर्याप्तापर्याप्त तथा तृतीय गुणस्थान में देवगति नियम से पर्याप्त होती है। (भवन
त्रिक की अपेक्षा चौथे में नियमतः पर्याप्त देवगति ही है।) एकेन्द्रियजाति-मात्र प्रथम गुरणस्थान में पर्याप्त व अपर्याप्त सभी प्रकार की एकेन्द्रिय जाति होती
है। (परन्तु किन्हीं प्राचार्यों, विद्वानों के मत से एकेन्द्रियों में भी सासादन सम्भव है, उनके हिसाब से एकेन्द्रिय अपर्याप्त जाति द्वितीय गुणस्थान में भी सम्भव है। यह
द्वीन्द्रियादि असंजी पंच. अप. तक समझना चाहिए।) द्वीन्द्रियादि –ये सभी पर्याप्त ब अपर्याप्त मात्र प्रथम गुणस्थान में होते हैं। [मतान्तरानुसार(पूर्ववत्) विकलत्रयजाति अपर्याप्तावस्था में यानी अपर्याप्त द्रीन्द्रिय, अपर्याप्त त्रीन्द्रिय, अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय, व प्रसनी पंचेन्द्रिय जाति अपर्याप्त असंही पंचे. जाति द्वितीय गुणस्थान में भी सम्भव है ।] सौ पंचेन्द्रिय-ये पर्याप्त तो सभी गुणस्थानों में होते हैं पर अपर्याप्त १, २, ४, ६. व १३ इन पाँच जाति मुणस्थानों में होते हैं। असकाय -इस में पर्याप्त त्रस सभी गुणस्थानों में सम्भव हैं, अपर्याप्त बस –१,२,४,६,१३, इन
गुणस्थानों में सम्भव हैं। [वीन्द्रियादि प्रसंजी पंचेन्द्रिय तक के त्रस पर्याप्तापर्याप्त,
१. मिध्यादृष्टि माणस्थान।
मंग्रहकार अमिनयति: भूनबली, पूज्यपादाचार्य, जीवप्रबोधिनीकार, प्रादि ।