Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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७६२/गो. सा. जीबकाण्ड
गाथा ७०३
नहीं, अत: कार्य भी नहीं है । ) शेष तीन संज्ञाएँ भी कार्य रूप से तो पागे नहीं हैं, क्योंकि प्रागे सान आदि गुरणस्थान में भय से भागना, रतिक्रीड़ा व परिग्रह-स्वीकार रूप कार्य तो देखा जाता है नहीं। सातवें आदि में शेष तीन संज्ञाएँ उपचार से कही गई हैं और उपचार का कारण उन तीन संज्ञानों के कारणभून कर्मों की वहाँ उदयोदोरणा है । अतः कर्मोदय मात्र की दृष्टि से अप्रमत्तसंयत के आहार बिना तीन संज्ञाएँ हैं। अपुर्वकरण में भी ये तीन संज्ञाएँ हैं । अनिवृत्तिकर गुणस्थान में प्रथम भाग में मैथुन व परिग्रह ये दो संज्ञाएँ ही हैं ।
का क्यों ?
समाधान--इन दो संज्ञानों के होने का कारण यह है कि अपूर्वकरण गुणस्थान के अन्तिम समय में भय के उदय ब उदीरणा, दोनों नष्ट हो चुके हैं । इससे भय संज्ञा यहाँ नहीं है ।। अतः उक्त दो संज्ञाएँ ही रह जाती हैं। अनिवृत्ति करा के द्वितीय भाग में वेद नोकपाय कर्म का उदय नष्ट हो जाने से मथुन संज्ञा भी नहीं है। यानी अन्तरकरण करने के अनन्तर अन्तमहत जाकर वेद का उदय नष्ट होता है । अतः द्वितीय भागवर्ती जीवों के मथुनसंज्ञा नहीं रहती है। अतः मात्र एक परिग्रह संज्ञा उपचार से (उपचार का कारण कर्म का अस्तित्व) अनिवृत्तिकरण के द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पञ्चम भाग में रहती है । सूक्ष्मसाम्पराय में परिग्रह संज्ञा भी सूक्ष्म (अल्प) रूप से है क्योंकि यहाँ मात्र सूक्ष्म लोभ का उदय है, स्थूल का नहीं । ग्यारहवें गुणस्थान में संजाएँ उपशान्त अवस्था को प्राप्त होती हैं। कहा भी है कि संज्ञा के उपशान्त होने का कारण यह है कि यहाँ पर मोहनीय कर्म का पूर्ण उपशम रहता है, इसलिये उसके निमित्त से होने वाली संज्ञाएँ भी उपशान्त ही रहती हैं, अतएव यहाँ उपशान्त संज्ञा कही। लेकिन मागे बारहवें आदि सब गुणस्थानों में क्षीणसंज्ञा' यानी संज्ञा का पूर्ण प्रभाव जानना चाहिए, क्योंकि, कषायों का यहाँ सर्वथा क्षय हो गया है, अतः संज्ञाओं का क्षीण (नष्ट) हो जाना स्वाभाविक ही है। इस प्रकार उपशान्नादि गुणस्थानों में कार्यरहित भी संज्ञाएँ नहीं हैं, कारण के अभाव में कार्य का अभाव होता है ।
गुणस्थानानुसार संज्ञाओं की संख्या (व व्युच्छिनि ) का नक्शा इस प्रकार है---
गुणास्थान
| गुणास्थान || २ | ३ || ५ | - | | १० ११ १२ १३ | १४ | संज्ञा || ४ | ४ | « | ४ | ४ | ३ | ३ । २१ | • • • व्युच्छित्ति । • | | | | १ | १ | १ . १ । . ... ।
गुग्गर थानों में मार्गगगा मगण उवजोगावि य सुगमा पुर्व परविदत्तायो । गदिनादिसु मिच्छादी पविदे रूविदा होति ।।७०३॥
१. पदम-परिणयत्तिगण भण्या मागे ....... ....... पपुवकरण चरिमसमए भयस्स उदीरमोदया गटा नेरा भयसपमा माथि 1 घ. २४३८ । २. ध. २/४४१ । ३. घ, २१४४२ । ४. अशान्तादिपू कार्यरहितागि न, कारणाभाचे कावयाभावः । प्रा. पं सं. अधि ४/गा.२./टीका ।