Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ७१३
७७० / गो. सा. जीवकाण्ड
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में विरत गुणस्थान में भी एक पर्याप्तालाप ही ( सम्यष्टि वहाँ जन्म नहीं लेते अतः ) बनता है । सर्व पृथ्वियों में सासादन गुणस्थान में पर्याप्तालाप ही बनता है, क्योंकि सासादन गुणस्थानवर्ती तिर्यंच मनुष्यों के नरकगति को गमनयोग्य परिणाम भी नहीं पाये जाते हैं। 2 एवं देवनारकी सासादनगुणी तो नरक को जाने से रहे (यानी देव व नारकी मात्र नरक को नहीं जाते) अतः सासादन गुणस्थान सहित नरक में गमन का जन्म लेने का अभाव होने से सातों नरकों में पर्याप्तावस्था में सासादन गुणस्थान का प्रभाव बनता है।"
अतः सातों पृथिवियों में सासादन गुणस्थान में एक पर्याप्त आलाप ही बनता है । तथा मिश्र (तीसरे) गुणस्थान में भी सातों पृथिवियों में एक पर्याप्त बालाप ही होता है; क्योंकि, मिश्रगुणस्थान वाला. अपर्याप्त अवस्थायुक्त नरक में नहीं मिलता। कारण कि मिश्र गुरणस्थान में, चारों गतियों में से कहीं भी आयुबन्ध नहीं होता।" और "जिस गति में, जिस गुणस्थान में ग्रायुकर्म का वन्य नहीं है, उस गति से, उस गुणस्थान सहित निर्गमन का भी अभाव है; ऐसा कषाय उपशामकों को छोड़कर श्रन्य जीवों के लिये नियम है इस नियम के अनुसार मिश्रगुणसहित जीव मरण नहीं कर सकने से 45 पर्याप्त नारकी के रूप में कैसे उपस्थित होगा ? फलतः मिश्र में पर्याप्त' आलाप ही सातों नरकों में सम्भव है; क्योंकि अपर्याप्तकाल में मिश्रगुगास्थान के अस्तित्व को बताने वाले आगम का प्रभाव है।
तिर्यञ्चगति में आलाप
तिरियउक्कारोधे मिद्धदुगे अदिरदे य तिष्णे व ।
वरिय जोरिपरि अथवे पुण्गो सेसेवि पुण्णो दु ।। ७१३||
गाथार्थ-चार तिर्यंचों के गुणस्थानों में से – मिथ्यात्वद्विक और अविरत गुणस्थान में तीनों आलाप होते हैं । इतनी विशेषता है कि योनिनी तिर्यंच में प्रसंयत गुणस्थान में एक पर्याप्त ही आलाप होता है । शेष गुणस्थानों में भी एक पर्याप्त ही आलाप होता है ॥७१३||
विशेषार्थ - तिर्यञ्च पांच प्रकार के होते हैं । १. तिर्यञ्च २. पंचेन्द्रिय तियंत्र ३. पंचेन्द्रिय नियंत्र पर्याप्त ४. पंचेन्द्रियतिर्यञ्च योमिनी और ५ पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त। इनमें से पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त के तो एक मिथ्यात्व गुणास्थान होता है 1१° पूर्व के चार तियंत्रों के आदि के ५ गुणस्थान सम्भव हैं । ११ वहां उनमें प्रथम द्वितीय व असंयत इन तीन गुणस्थानों में तीनों आलाप होते हैं। लेकिन योनिनी पंचेन्द्रिय तिर्यंच के असंयत गुणस्थान में एक पर्याप्ताला ही होता है ।११
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יין
१. खासगी खारयापुषो गो.जी. १२८ २. तिरिक्खमस ससाणं रिट्यगइगमरणपरिगाभावा । ४. श्र. ६/४३० ध. ६/४५६ | ३. ध. ६/४७८ एवं ६/४४७ औ गत्यागतिसूत्र ७६-२०२ षट् यं । ५. ध. १/ २०७ । एवं घ. १/२००७ एवं घ. ६/४३८ सासादन राम्यष्टीनां नरकगत प्रदेशो नास्ति । ६-७ ध. ६/४६३-४६४; गो. जी. २३ . ४/३४६-३४३ . ५ / ३१ । ४ गो. जी. २३-२४.४/३४६ ध. ५/३१ । ८. राभ्यमिध्यात्व गुणस्थानस्य पुनः सर्वदा सत्रापर्याप्ताद्धाभिर्विरोधस्तव तस्य मत्वप्रतिपाद का - विरोधात् । . १/ २०७६ . २/४७३। १०. व. २/५०२, ध. १/३३१ । ११. व. २ / ४७५-४९५ | १२. पट् वं. १/४ से २/४७५. मे ४६४ । १३. स. नि. १/७ पद् स्वं १ / ८८. १/३३० ॥