Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 806
________________ ७७२/ गो. स. जीवकाण्ड गाथा ७१६-७१७ इसलिये स्त्रीवेद वाले मनुष्यों के प्रहारकद्विक के बिना ग्यारह योग कहे गये हैं।' 'तु' शब्द से यह लेना है कि इसके ( मनुष्यनी के ) मन:पर्यय व परिहारविशुद्धि नहीं होते । श्रर्थात् मनुष्यनी के मन:पर्यय के बिना ७ ज्ञान व परिहारविशुद्धि के बिना ६ संयम सम्भव है ।" शंकर क्या मनुष्यनी के ग्राहारक शरीर नामकर्म का उदय व आहारक अंगोपांग नामकर्म का उदय भी नहीं हो सकता ? समाधान — कैसे होगा ? नहीं हो सकता। ऊपर कहा जा चुका है। शेष कथन सुगम है । गरलद्धिपज्जत्ते एक्को दु अपुण्गगो दु श्रालावो । लेस्साभेदविभिष्णा, सत्त वियप्पा सुरट्ठाखा ।।७१६।। गाथार्थ - मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक में मात्र एक अपूर्णक (अपर्याप्तक) आलाप होता है। देवगति में लेश्याओं के भेद की अपेक्षा से सात विकल्प होते हैं ।। ७१६ ।। विशेषार्थ मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक भी नियम से संजी, पंचेन्द्रिय व मिध्यादृष्टि होते हैं। तथा लब्ध्यपर्याप्त होने के नाते छहों पर्याप्तियों से अपर्याप्त होते हैं। तथा इनके लब्ध्यपर्यातक होने से एक लब्ध्यपर्याप्त आलाप ही सम्भव है । देव में वेश्या की गपेक्षा जोमात भेट होते हैं, वे निम्नलिखित हैं। * १. तीन ( भवनत्रिक) के तेजोलेश्या का जघन्य श्रंण । २. दो ( सौधर्म, ऐशान स्वर्गवासी) में तेजोलेश्या का मध्यम अंश | ३. दी ( सानत्कुमार व माहेन्द्र स्वर्गवासी) में तेजोलेश्या का उत्कृष्ट व पद्म का जघन्य अंश । ४. छह (ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र व महाशुक्र स्वर्गवासी) के मध्यम पद्म लेश्या ५. दो ( शतार व सहस्रार स्वर्गवासी) के उत्कृष्ट पद्म लेश्या व जघन्य शुक्ल लेश्या । ६. १३ (आनत, प्रारणत प्रारण व अच्युत स्वर्गवासी व नौ ग्रैवेयकवासी) के मध्यम शुक्ल लेश्या | ७. चौदह ( नौ अनुदिश तथा ५ अनुत्तरवासी) के उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या । इस प्रकार देवों के लेश्या के भेद से भिन्नता प्राप्त ये सात स्थान हैं, ऐसा ज्ञातव्य है । सव्वसुराणं श्रोधे मिच्छदुगे अविरवे य तिष्णेव । वरिय भवरपतिकरिपत्थी च य श्रविरदे पुष्पो ||७१७॥ १. एत्थ श्राहारमाहारमिस्सकाय जीवा सात्थि । कि कारणं ? जेंस भावो इत्थवेदोदव्यं पुग्गरिवेशे ते जि जीवा जति दवित्थिदेवा पुग्गा सेजमा पविञ्छति गचेलत्तादो मावित्थिदाणं दव्वेण दारणं पि संजाणं साहारमिद्धी ममुपज्जदि दव्व-भावेहि पुरिसनेा चेव ममुष्पादि तेत्थियेदे सिरुद्ध माहारदुर्ग स्थिते एमार होगा भणिवा, ध.२ / ५१५ २. उनुसिगगां भागमा पत्थि मणपञ्जवगारोगा विशा सत्त शाखाखि परिहारसंजमेरा विणा छ संजमा ६. २ / ५१६ ३. गो. क्र. ३०१ । ४. ध. २/५३२ ५. प. २/५३६: पं. स. १ / १०० - १६९ पृ. ४०; गो. जी. ५३३-५३४ ।

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