Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 795
________________ गाया ७०२ अन्तर्भाव/७६१ समाधान-हां, छहों पर्याप्तियाँ होती हैं । छहों के होने का कारण यह है कि पूर्व से आयी हुई पर्याप्तियाँ तथैव स्थित रहती हैं । अतः छहों र्याप्तियाँ अयोगी के कहना अविरुद्ध है। हो यहां पर पर्याप्तिजनित कोई कार्य नहीं होता, यह ठीक है।' शंका- सौदारिक मिश्र व कार्मण काययोग के काल में केवली के कितने प्रारण होते हैं ? समाधान -दो, आयु व काय प्राण । विशेष यह है कि कामगा काययोग में तो केवली के दो (आयु व काय) प्राण ही हैं । औदारिकमिथ में भी अपर्याप्तावस्था के कारण उपयुक्त प्राणद्वय ही बनते हैं। अथवा केवली के विद्यमान शरीर की अपेक्षा पूर्वोक्त प्राणों की कारणभूत पर्याप्तियाँ रहती ही हैं, इसलिए छठे समय से वचनबल और श्वासोच्छवास ये दो प्राण माने जा सकते हैं । इस तरह केवली के औदारिकमिथ अवस्था में ४ प्राण भी कहे जासकते हैं।' गुणास्थानों में संजा छट्टोत्ति पढमसण्णा सकज्ज सेसा य कारणावेक्खा । पुत्रो पढमरिणयट्टो सुहमोत्ति कमेण सेसानो ॥७०२॥' पाथार्थ छठे गुणस्थान पर्यन्त चारों संज्ञाएँ सकार्य होती हैं 1* प्रागे प्रथम संज्ञा नहीं है। शेष तीन संज्ञाएँ कारण की अपेक्षा क्रमशः प्रपूर्वकरण तक, अनिवृत्तिकरण के प्रथम भाग तक व सूक्ष्मसाम्पराय तक होती हैं ।।७०२।। विशेषार्थ- संज्ञा के वैसे चेतना, बुद्धि, ज्ञान, संकेत, नाम, वाञ्छा प्रादि अनेक अर्थ होते हैं, परन्तु यहाँ वाञ्छा अर्थ विवक्षित है। संज्ञा पानी वाञ्छा । [व्युत्पत्ति की अपेक्षा सम् उपसर्गपूर्वक 'जा' धातु से अङ्-टाप् प्रत्यय होकर संज्ञा शब्द बना है] संज्ञाएँ चार होती हैं--प्राहार, भय, मैथुन व परिग्रह 1५ इनका स्वरूप पूर्व में कहा जा चुका है। विशेष यह है कि प्रथम गुणस्थान से लेकर छठे गुणस्थान तक चारों संज्ञाएँ कार्यरूप पायी जाती हैं। परन्तु छठे गुणस्थान के बाद में प्राहार संज्ञा नहीं होती; क्योंकि, आहारसंज्ञा का अन्नरंग कारण असातावेदनीय की उदीरणा है। और असातावेदनीय की उदीरणा छठे गुणस्थान तक ही होती है । अत: अप्रमत्तसंयत के असातावेदनीय को उदीरणा का अभाव हो जाने से याहार संज्ञा नहीं होती है । (मातवें में प्राहारसंज्ञा का कारण १. ध. २।४४६ । २. ध. २/६५६ व ७३ व ७३३। ३. घ. २१६६०। ४. प्रा. पं. सं. । शतक । प्र. ८६ गा, २०, टीका । एवं सं. पं. संग्रह ११६१-६२ टीका पृ. ६६५। ५. सण्णा च बिहा प्रादार-भय-मेहुणपरिम्गहसध्यगा चेदि । ध.२/४१५, प्रा. पं. सं. ११५१ से १४ पृ.११-१२, गो. जी. १३४-१३८ । ६. गो. जी. । *. प्रा. पं. सं. शतक गा. २५ संस्कृत दीका पृ.८६। ७. सादिदग्दीरमाए होदि ह पाहारसण्णा द। प्रा.पं.सं. ११५२ पृ. ११ एवं गो. जी. १३५ एवं घ, २७. ४१५ गा. २२४ । . गो. क. २०७: अवशिदतिष्पयडी पमतविरदे उदीरमा होदि । प्रा पं.सं । कमस्तव ४४-४५-४६ पृ. ६५: सरकृत पसं. ३ प. ६७६; धवल पु. १५ पृ. ५५ ५७६. अमादावेदरणीयस्त उदीरणामाबादो प्राहारसाराणा प्रप्पमतसंजदरस पत्थि । घ. २/४३७ ।

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