Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ७०१
ग्रन्तर्भाव / ७५६
में तेजोलेश्यावाले के संजीपर्याप्त व संजीपर्याप्त ये दो जीवसमास होते हैं।' क्योंकि पंचेन्द्रिय अवशिष्ट शुभलेश्य में भी मात्र संजोपर्याप्ति व संजी
संजी के लेश्या अशुभ ही होते हैं पर्याप्त ये दो जीवममाग होते हैं।
भव्यमाणा में भव्य व भव्य दोनों में १४ जीवसमास होते हैं। सम्यक्त्वमार्गरण में सभ्यष्ट के पर्याप्त अपर्याप्त ये दो जीवसनाम होते हैं | तथा अतीत जीवसमास हैं। तथा विशेष यह कि ऐसा सर्वत्र ( मार्गणा में ) लगा लेना चाहिए पर यथासम्भव | |
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ये ही जोवसमास क्षामित्व में होते हैं। वेदक सम्यक्वी व उपशमसम्यक्त्री में भी ये ही दो जानने चाहिए। मिथ्याष्टि के १४ जीवसमास व सासादन के दो' जीवसभास होते हैं । यह भगवान वीरसेनाचार्य आदि का मत है, परन्तु पञ्चसंग्रहकार आदि के मतानुसार सातों अपर्याप्त व संज्ञी पर्याप्त इन जीवसमासों में सासादनसम्यक्त्व सम्भव है। सम्यग्मिथ्यात्व के मात्र संज्ञीपर्याप्त जीवसमास होता है।
संज्ञीमागंणा में संज्ञी में तत्सम्बन्धी वो जीवसमास (स (संजी पर्याप्त व अपर्याप्त ) तथा संज्ञी में भी प्रसंज़ी सम्बन्धी १२ जीवममास होते हैं। (संजी सम्बन्धी को को छोड़कर बाकी के १२) |
ग्राहारमार्गणा में आहारक के सभी १४ जीवसमास होते हैं तथा अनाहारक के अपर्याप्त ७ व योगी का संज्ञी पर्याप्त सम्बन्धी १. ऐसे व जीवसमास हैं।" व अतीत जीवसमास भी।
गुणस्थानों में पर्याप्ति और प्राण
पज्जत्ती पारणावि य सुगमा भाविदियं रंग जोगिहि |
तहिं वाचुस्सासाउगकायत्तिगबुगमजोगिरणो प्राऊ ॥७०१ ॥ *
गाथार्थ पर्याप्त और प्राण सुगम हैं। सयोगकेवली में भावेन्द्रिय नहीं है। सो वहाँ ४ प्रा होते हैं - वचन, श्वासोच्छ्वास आयु और कायवल अथवा यहाँ तीन व दो प्राण भी होते हैं । अयोगी के मात्र ग्रायुप्राग़ा होता है ॥७०१३ ॥
विशेषार्थ - वारहवें गुगास्थान तक सब पर्याप्ति व सब प्राण होते हैं । सयोगी के द्रव्य-इन्द्रियों की दृष्टि ( अपेक्षा) से छह पर्याप्तियाँ हैं और उपयुक्त ४ प्राण पाँच इन्द्रियप्राण व १ मनःप्राण, ये कुल ६ प्राण यहाँ नहीं हैं। इस प्रकार सयोगकेवली के इन ४ प्रारणों में मे वचनयोग के विश्रान्त हो जाने पर तीन प्राण ही रहते हैं तथा फिर उच्छवास निश्वास की विधारित होने पर दो प्राण रहते
३. घ. २ / ००१००३ प्रा. पं सं. शतक
१. च. २/७३६ व पं सं. ४ /१८/८५ | २. घ. २/५८६ ५६० । ५. वीरमेनाचार्य : नेमिचन्द्राचार्य गो. जी. ६९६
८५ / गा. १८ । ४. ध. २०४३० एवं गो. जी. ६६६ ।
म.पं.सं.
इत्यादीनाम् इति । ४/२०१८६ |
६. पं. संग्रह ४।१६।०५। ७. व. २१४३२ व पं. सं ४।१६।८४-७५ | ६. प्रा. पं सं. 1 शतक ४, सा. २० १.८६ ॥