Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

View full book text
Previous | Next

Page 794
________________ ७६०/ गो. सा. जीवकाण्ड हैं। योगी के एक आयुप्राण मात्र होता है | शंका- केवली के द्रव्येन्द्रियों की अपेक्षा दस प्राण क्यों नहीं कह दिये जाते हैं ? गाथा ७०१ समाधान- यदि प्राणों में द्रव्येन्द्रियों का ही ग्रहण किया जावे तो संज्ञी जीवों के अपर्याप्त काल में सात प्राणों का अभाव होकर कुल दो ही प्राण कहे जायेंगे; क्योंकि, उनके द्रव्येन्द्रिय का अभाव होता है | अतः यह सिद्ध हुआ कि सयोगी के दस प्राण नहीं हो सकते । शङ्का - कितने ही यात्रायें द्रव्येन्द्रियों के अस्तित्व की अपेक्षा १० प्राण कहते हैं, सो क्या उनका कहना नहीं बनता ? — समाधान हाँ, भगवान वीरसेनस्वामी के कथनानुसार उनका कहना नहीं ही बनता है, क्योंकि, सयोगी जिन के भावन्द्रियां नहीं पाई जाती हैं। पांचों इन्द्रियावरणकर्मों के क्षयोपशम को भावेन्द्रिय कहते हैं । परन्तु जिनका प्रावरण कर्म समूल नष्ट हो गया है, उनके वह क्षयोपशम नहीं होता है, अतः इन क्षयोपभवन्द्रियों व भयमन के नाव में केवली भगवान के छह के बिना ४ प्राण ही होते हैं, ऐसा जानना चाहिए। 3 शङ्का - प्रयोगी के एक प्रायुप्रारण ( ही ) होने का क्या कारण है । समाधान - ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम रूप इन्द्रिय प्राण तो प्रयोगी केवली के हैं नहीं क्योंकि ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षय हो जाने पर क्षयोपशम का अभाव पाया जाता है। ग्रानापान, भाषा व मनःप्राण भी उनके नहीं हैं, क्योंकि पर्याप्तिजनित प्राण संज्ञावाली शक्ति का उनके प्रभाव है । उनके कायबल प्राण भी नहीं है, क्योंकि, उनके शरीर नामकर्म के उदय जनित कर्म व नोकर्म के आगमन का प्रभाव है | अतः प्रयोगी भगवान के एक ग्रायुप्रारण ही होता हैं। उपचार का आश्रय करके उनके एक प्राण, छह प्रारण अथवा ७ प्राण भी होते हैं, परन्तु यह पाठ गौण है । [ ऐसे उपचार का आश्रय सयोगकेवली के भी लिया जाना सम्भव है। ] शङ्का- क्या योगी भगवान के ग्रहों पर्याप्तियाँ होती हैं । तत्रापि १. वागुच्छ् वास निश्वासायुकाय प्रारणाचत्वारो भवन्ति मयोगिजिने, शेषेन्द्रिय मनः प्राणाःपट् नमन्ति । बाग्योगविश्रान्ते श्रयः ३ । पुनः उच्छवासनिःश्वासे विश्रान्ते द्वौ २ । अयोगे प्रायुः प्राणः एकः । प्रा. पं. सं. ४१२ | पृ. ६ एवं घ. २०४२३, ४४७, ४४८, ५३१, ६५६, ९७३, ७३०, ८५३ श्रादि । श्रयमत्र विशेष वर्तते यत् घबलायां उपर्युक्तस्थानेषु सर्वोोगिनः प्रायप्ररूपणा नास्ति । परन्तु पंचसंग्रहे (पृ. ८६ गा. २० टीका, शतक) प्रकृत जीवकाण्ड (गा. ७०१) प्राणत्रयप्ररूपणाऽप्यस्ति । प्राणत्रय – प्ररूपणा च योगनिरोधसमयापेक्षया घटिता भवति । लिनः समुद्घातापर्याप्तावस्थायामपि दो, त्रयोदशगुणस्थानान्त-समयेऽपि दौ ( श्रायुः कायमच ) इति विशेष ज्ञातव्यः ॥ २. ध. पु. २ पृ. ४४८ अव दव्दिदियस्य जदि ग्रहणं कीरदि तो मज्जाले सत्त पागा फिट्टिदू दो चैव पारणा भवति, पंचण्हं दबेदियागमभावादी । तुम्हा सजोगकेवलिस चलारि पारणा दो पा भवति ३. प. पु. २ पृ. ४४७-४८ | ४. ध. २ / ४४९-५० ५. उवत्रामस्मिकरण एक्को वा छ वा सन वा पाणा भवति । घ २/४५० ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833