Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

View full book text
Previous | Next

Page 799
________________ गाथा १०४ अन्तर्भाव/७६५ सूक्ष्ममाम्पराय गुणस्थान में पूक्ष्म लोभ संज्वलन कपाय ही रहती है। ऊपर के सभी मुगास्थानों में कषाय नहीं है ।' ज्ञानमार्गरणा -प्रथम व दुसरे गुणस्थान में तीन मियाज्ञान ही होते हैं। मिश्च में भी ग्रादि के तीनों ज्ञान मिश्र रूप होते हैं। चौथे व पाँचवें गुणस्थान में मति, श्रत व अवधि ये तीन सम्यग्नान होते हैं। छठे से बारहवें गुणस्थान में उपर्युक्त तीन के साथ मनः पर्यय भी होता है। प्रागे तेरहवे ग्रादि गुणस्थानों में केवलज्ञान मात्र होता है । संयममार्गणा -आदि के ४ गुणस्थानों में असंयम मार्गग्गा है। पांचवें गुणस्थान में देशसंयम मात्र होता है । छठे सातवें में सामायिक, छेदोषस्थापना व परिहारविशुद्धि ये तीन संयम होते हैं । पाठवें व नौवें गुगास्थान में मात्र सामायिक, छेदोपस्थापना संयम ही होता है। दसवें में सूक्ष्मसाम्प गय संयम होता है । ऊपर सब गुरणस्थानों में यथाख्यात संयम है। इसे ही पूज्यपादाचार्य आदि ने अथारख्यात संयम भी कहा है। दर्शनमार्गणा -आदि के तीन गुणस्थानों में चक्षु व अचक्षु ये दो दर्शन' ही हैं। चौथे से बारहवें गुगास्थान तक में चक्षु, प्रचक्षु व अवधिदर्शन ये तीन होते हैं। आगे के गुणस्थानों में मात्र केवलदर्शन होता है। (पंचसंग्रह में तीसरे गुगास्थान में भी अबधिदर्शन बताया है ! शङ्का-विभंग दर्शन (प्रथम द्वितीय गुणस्थान में ) क्यों नहीं कहा? समाधान नहीं, क्योंकि, उसका अवधिदर्शन में अन्तर्भाव हो जाता है। ऐसा ही 'सिद्धिविनिश्चय' में भी वहा है-.."अवधिज्ञान और विभंगज्ञान के अवधिदर्शन ही होता है।" लेश्यामार्गणा -चौथे तक के गुणस्थानों में छहों लेश्याएं होती हैं। पांचवें से सातवें तक के गुणस्थानों में तीन शुभ लेश्याएँ ही होती हैं। इससे आगे सयोगी पर्यन्त शुक्ललेश्या ही होती है । अयोगिगुणस्थान लेश्यारहित है। विशेष यह है कि सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद के मतानुसार बयुश, प्रतिसेवना व कापायकुशील निर्ग्रन्थ संयतों के भी अशुभलेश्या मम्भव है। जबकि धवलाकार के मतानुसार चौथे के बाद अशुभत्रय असम्भब हैं । भन्यमार्गणा -प्रथमगुणस्थान में भव्य वा अभय दोनों हैं। दूसरे से १२ वे तक के गुगास्थानों में भव्य ही हैं। सयोगी व अयोगी- इन दोनों गुगास्थानों में भी भव्य हो होते हैं। १. घ.२/४३६ मे ४४२ । २. सजोगि-केवलीण भण्या मागे अस्थि........ केवनगाणं . .... I एवं प्रयोगिकेवलीनतमपि जातव्यम्। ५.२/४४- | ३. ध. २/४३२) ४. पं. म. गाथा ६४.६६ पृ.१००। ५. विहंगदंसरणं कि पहबिदा , तस्स प्रोहिदसगो अंतभावादा। तथा सिद्धिविनिश्चयेऽप्यूतम...."अवधिवि. भंगयोग्बघिदर्शन मेव" इति । धवल पृ. १३ पत्र ३५६ । ६. म. मि. ९४६; ना. वृ. ६।४७।३१६; ग. वा. ६१४६ बकुशप्रतिसेवनानुशी लयोः पडपि । कारकुणीनस्य उत्तराश्चनप्तः । ७. घ. २४३५ दृश्यताम् (नक्शा १३ ग्रादितथा ध. २१८०१। ८. घ.२/४४८ मे १५० घ. १/३६५ स. सि. १८ पु.२३ पृ. २६ । पृ.३८ पृ. ५६; सं. पं. सं. ११२१५ पृ. ६:।

Loading...

Page Navigation
1 ... 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833