Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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७५८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ७०० काययोग में सभी जीवसमास होते हैं ।। प्रौदारिक काययोग में ७ पर्याप्त जीवसमास व प्रो० मिथ में ७ अपर्याप्त जीवसमास होते हैं। वैक्रियिक काययोग में संजी पर्याप्त एक जीवसमास व उसके मिश्र में संज्ञी अपर्याप्त एक ही जीबसमास है। वैकियिक योगवत् साहारकयोग और वैत्रिपिकमिश्रवत आहारकमिश्र में जीबसमास जानना । कामरा योग में भी अपर्या. जीवसमास हैं।
_वेवमार्गरणा में स्त्रीवेद में जीवममास होते हैं- संज्ञी पर्याप्त, संज्ञी अपर्याप्त एवं असंजीपनेन्द्रिय पर्याप्त व असंजी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त । पुरुषवेद में भी उपयुक्तवत् ४ जीवसमास होते हैं। पर नमक वेद में १४ ही जीवसमास सम्भव हैं।
कषायमार्गणा में क्रोध कषाय में (या सामान्य से ) श्रोधकषायी जीवों के १४ ही जीवसमास होते हैं। अन्य कषाय में भी क्रोधकपाय बत् मभी जीवन मास होते हैं।''
ज्ञानमार्गणा में मस्तिथतप्रज्ञान में मामान्य से १४ जीवसमास, विभंग ज्ञान में संज्ञी पर्यापनएक जीवसमास, मतिश्रुतज्ञान में संज्ञी पर्याप्त व अपर्याप्त ये दो जीवसमास, मनःपर्यय ज्ञान में मात्र एक संजीपर्याप्त जीवसमास तथा केवलज्ञान में संज्ञीपर्याप्त जीवसमास व संज्ञीअपर्याप्त जीवसमास ये दो हैं अथवा एकपर्याप्त जीबसमास (अयोगी की अपेक्षा) तथा प्रतीत जीवसमास (सिद्धों की अपेक्षा) भी है।
संयममार्गणा में सामान्यत: संयम में संज्ञी पर्याप्त व संज्ञी अपर्याप्त ये दो ही जीवसमास सम्भव हैं (विशेषापेक्षया प्रमत्तसंयत के दोनों, परन्तु अप्रमत्त के संज्ञीपर्याप्त नामक एक जीवसमास सम्भव है) । सामायिक व छेदोपस्थापना संयम में दोनों, परिहारविशुद्धि संयम में एक (संज्ञीपर्याप्त ही) तथा सूक्ष्मसाम्परायसंयम में एक संज्ञीपर्याप्त जीवसमास तथा यथाख्यात शुद्धिसंयम (अथवा प्रथाख्यातशुद्धिसंयम) में दो जीवसमास हैं (संज्ञीपर्याप्त व संजीअपर्याप्त) । असंयत जीवों के १४ जीवसमास सम्भव हैं। संयतासंयतों के भी एक संजीपर्याप्त जीवसमास है।
वर्शनमार्गरणा में चक्षुर्दर्शनी के यानी चक्षुर्दर्शन में सामान्यतः ६ जीवसमास होते हैंचतुरिन्द्रिय पर्याप्त व अपर्याप्त २ तथा पंचेन्द्रिय संजीव असंज्ञी तथा इनके पर्याप्त व अपयप्ति ४ ऐसे कूल २+४-६हए। अपर्याप्तकाल में भी चक्षदर्शन के क्षयोपशम का सदभाव होने से, अथवा
या ६ जीवसमास हैं,गोसा समझना। अचक्षदर्शन मेंसा मान्यतः १४ ही जीवसमास होते हैं।" अवधिदर्शन में दो जीवसमास होते हैं (संज्ञी संबंधी) । तथा केबलदर्शन में केवलज्ञानवत् जानो। यानी संजीपति व अपर्याप्त ये दो।
लेश्यामार्गणा में अशुभत्रय लेण्या में सामान्यत: १४ ही जीवसमास होते हैं । १२ शुभलेश्याओं
१. ध. पृ. २ पृ. ६३८; प्रा. पं. म. ४।११५८३ । २. घ. पृ २ पृ. ६६६ परन्तु प्राकृतपम्चसंग्रहान्थे चौदारिकभिश्रयोगे कामकाययोगे च प्रष्ट जीवसमासा: दणिताः । प्रा.पं. सं. १।४ ग. १२ पृष्ठ ८३ । ३. प. पू. २ पृ. ६७४; प्रा. पं. सं. ४।१४। पृ. ८३ ४ . . पु. २ पृ. २६५ प्रा. पं. सं. ४।११।८३ । ५. घ. पू.२पू ६८६, प्रा. पं. सं. १११८८३ । ६. घ. पु. २ पृ. ७०१। ७. ध. पू. २१७१३ । ८. घ.२/७३२७४० एवं प्रा. पं. सं. ४/१६/८४1 . घ. २/४३६ एवं प्रा. पं. सं. ४/१६/८४ | ३. ध.२/७४०। १०.ध. 10४४ । ११. प्र. २/७५१ प्रा. ५. सं. ४/१७/४ । १२. ध २/७५०-७६६ एवं पं. स./१८/८४-५ । पर्याप्तकालेऽपि वक्ष रंजनस्य क्षयोपशममदभावात शक्त्यपेक्षया वा पइया जीपममामा भनन्ति । 1 सं. मानक गा.१७ टीका ।