Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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७५६ / गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा ६६८
मार्गरा के अनुवाद से संजी व असंज्ञी जीव होते हैं।" यानी समनस्क और अमनस्क इन दो भेद रूप संज्ञी मार्गेणा है । श्रतः संज्ञी मार्गणा विषयक इस गाथा में दोनों का कथन किया गया है। (ऐसे सर्वत्र जानना ।) वहाँ संज्ञी जीव तो प्रथम गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक होते हैं । तथा जो जीव नियम से प्रथम गुरणस्थान में ही होते हैं। पूज्यपादाचार्य ने कहा भी है कि संजी में मात्र एक मिध्यादृष्टि गुणस्थान होता है । अतः असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तक, जहाँ तक कि असंज्ञी होते हैं, गुणस्थान भी मिथ्यात्व नामक हो होता है ।
आहारमार्गणा में शुद्ध का
थावर काय पहुदी सजोगिचरिमोत्ति होदि श्राहारी । कम्मइय प्रणाहारी अजोगिसिद्ध वि पायथ्यो ||६६८||
गायार्थ-स्थावर काय से लेकर सयोगी गुणस्थान पर्यन्त ग्राहारक होते हैं। कार्मणका योग वाले तथा प्रयोगी व सिद्ध श्रनाहारक होते हैं ॥ ६६८ ॥
विशेषार्थ -- यहाँ श्राहारमार्गणा में गुणस्थान बताये हैं । ग्राहारमार्गणा के दो भेद हैं (१) आहारक ( २ ) नाहारक । सो स्थावर काय (एकेन्द्रिय) मिथ्यात्वी से लेकर तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगीपर्यन्त जीव श्राहारक होते हैं। * तथा कार्मण काययोगी जीव, अयोगी केवली भगवान तथा सकल सिद्ध अनाहारक होते हैं ।
शंका- किस-किस गुणस्थान में अनाहारक होते हैं ?
समाधान - ( १ ) मिथ्यादृष्टि (२) सासादन ( ३ ) असंयत सम्यग्वटि ( ४ ) सयोगकेवली ( इन चार में कार्मणयोग सम्भव होने से ) तथा ( ५ ) प्रयोगकेवली; इन पाँच गुणस्थानों में जीव अनाहारक होते हैं, अन्य गुणस्थानों में आहारक ही होते हैं ।
शंका-काकाययोगस्थ जीवों के कार्मणकाययोगी अवस्था में भी कर्म के ग्रहण का अस्तित्व तो है, तो इस अपेक्षा से कार्मण काययोगी जीवों को ग्राहारक क्यों नहीं कह दिया जाता ताकि अनाहारक फिर प्रयोगी व सिद्ध ही होवें ?
समाधान - उन्हें ग्राहारक नहीं कहा जाता है, क्योंकि कार्मणकाययोग के समय नोकवर्गणात्रों के चाहार का अधिक से अधिक तीन समय तक विरह काल पाया जाता है। सारतः कार्मरणकाययोगी जीवों के अनाहारकत्व का कारण उनके नोकवर्गणाओं के ग्रहण का अभाव है।
२. सुगी मिच्छा इट्रिप्पनडि १. सवियात्रा प्रत्थि मणी अमपी || १७२|| जीवस्थान, षट्खण्डागम । जाव खोग्नकसाय वीयराम छदुमत्था ति ।।१७३१४ जीवस्थान षट्वं सर्वाशि १ | ३. असंजिपु एकमेव मिध्यादृष्टिस्थानम् । स. सि. १/८ . २/५८६ नवी संस्क। एवं पट्कं. १ / १७४ । ४. ग्राहाराणुवादेण श्राहारीं मण्णुमा अलि तेरहगुगादशाि श्रवला घु. २/८३६, स. सि. १/८ प्रकरगा ४४ / १.२४ । ५. प्रणाहाराचमुठाणेसु विग्गगह समावण्या, केवलों वा समुपाददाम जोगिकेवली सिद्धा चेदि ॥ १७७॥ श्रा जीवस्थान | प्रा. प. संग्रह १/१७७ ; म. सि. १/८/४४: संस्कृत पं.संग्रह १ / ३२४ ध. पु. १/४/२१ ष. पु. २ पृ. ८५०, ०५१ धवल पु. १ पृ. १५४ एवं गो. जी. ६६६ । पु. २॥ पत्र ६७० गाहारिणो, लोकम्मगहरणाभावादो |
६. धवल