Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गोवा ६६७
अन्तर्भाव / ७५५
होता है । उपशमश्रेणी वाले जीव द्वितीयोपथम सम्यक्त्व के साथ मरते हैं और देवों में उत्पन्न होते हैं अतः उनको अपेक्षा अपर्याप्तकाल में द्वितीयोपशम सम्यक्त्व पाया जाता है । अनादि मिथ्यादृष्टि श्रथवा सादि मिथ्यादृष्टि जीव चारों ही गतियों में प्रथमोपशम सम्यक्त्व को ग्रहण करने वाले पाये जाते हैं, किन्तु मरण को प्राप्त नहीं होते, क्योंकि प्रथमोपशम सम्यक्त्व में मरा का अभाव है ।" मनः पर्ययज्ञान के साथ उपशमश्रेणी से उतर कर प्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त हुए जीव के द्वितीयोपशम के साथ मन:पर्यय ज्ञान पाया जाता है। किन्तु मिथ्यात्व से पीछे आये हुए उपथम- सम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत्त जीव मन:पर्ययज्ञान नहीं पाया जाता है, क्योंकि प्रथमोपशम सम्यग्वष्टि के मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति सम्भव नहीं है । उपशम सम्यग्दृष्टि के सौदारिकमिश्र काययोग, प्रहारक काययोग, आहारक मिश्र काययोग और परिहारविशुद्धि संयम भी नहीं होता । 3
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मिध्यात्व में सादि मिध्यादृष्टि व अनादि मिध्यादृष्टि भी होते हैं। इसका कथन प्रथम गुणस्थान के समान जानना चाहिए, क्योंकि इसमें एक वायुमरपान ही होता है
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सासादन सम्पष्टि का कथन दूसरे गुणस्थान के अनुसार जानना चाहिए. क्योंकि इसमें एक सासादन नामक दूसरा गुणस्थान ही होता है ।
सम्यग्मिध्यादृष्टि का कथन तीसरे गुणस्थान के अनुसार जानना चाहिए, क्योंकि इसमें एक तीसरा गुणस्थान ही होता है ।
संज्ञीमार्गणा में गुगास्थानों का कथन सारणी सप्हुिदी खोलकसाग्रति होदि यिमे । थावरापद असण्यति हवे असण्णी हु ।।६६७।।
गाथार्थ - संजी जीव नियम से संजी मिध्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त होते हैं। स्थावरकाय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक असंज्ञो जीव होते हैं ।। ६६७ ।।
पं. रतनचन्दजी मुख्तार (सहारनपुर) कृन गोम्मटसार जीव काण्ड की प्रस्तुत टीका यही तक उपलब्ध है । क्रूर काल का ग्रास हो जाने के कारण वे अन्तिम ३८ गाथाओं को भापाटीका न लिख सके। इन गायानों की भाषाटीका स्व. मुख्तार सा. के सुयोग्य शिष्य वर्तमान में करणानुयोग के अप्रतिम विद्वान् युवा पण्डित जवाहरलाल जी जैन सिद्धान्तशास्त्री (भीण्डर) ने लिखी है। सं.
।। ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभवे नमः ॥ प्रणमामि सुनार्वेशमनन्तश्च मुनीश्वरान् । जिनवाणी तथा वन्दे सर्वलोकोपकारिणीम् ॥१॥ इति प्ररणत्य सम्भवन्या सर्वजीवहिताय वै । टीकाsयथाशक्ति सम्पूर्णीक्रियते मया ||२||
अथ अवशिष्टटीका प्रारभ्यते
गाथा ६६७ का विशेषार्थ - यहाँ यह बताया जा रहा है कि संज्ञी मार्गणा में कितने गुणस्थान
शव हैं । सो संज्ञी मार्गणा में संज्ञी व असंज्ञी दोनों गर्भित हैं । खण्डागम
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'कहा भी है कि संज्ञी पृ.४३० व गो. जी. मा ७३० । २. धवल पु. २ पृ. ८२२ । १. घचल पु. २ पृ. ६१८ ।
१. धवल पु. २