Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

View full book text
Previous | Next

Page 791
________________ गाथा ६९६-७०० अन्तर्भाव/३५७ गुगणस्थानों में जीवम मामा का कथन मिच्छे चोद्दस जीवा सासरण-अयदे पमत्तविरदे य । सण्णिदुर्ग सेसगुणे सरणीपुण्णो दु खीणोति ॥६६६।' गाथार्थ - मिथ्यात्व गुणस्थान में सभी चौदह जीवसमास हैं । मासादन, असंयत व प्रमत्तसंयत्त इन गुणस्थानों में संजीपर्याप्त और संत्री अपर्याप्त ये दो जीवसमास होते हैं। तथा वारहवें गुणस्थान पर्यन्त के अवशिष्ट गुणस्थानों में मात्र एक संनी पर्याप्त जीवसमाम होता है। गाथा के पूर्वार्धस्थ 'य' से यानी 'व' से जाना जाता है कि सयोगकेवली में भी दो जीवसमास होते हैं- संज्ञी पर्याप्त व संजीमाप्ति । तथा गाथा के उत्तरार्धस्थ 'दु' (संस्कृत 'तु') शब्द से जाना जाता है कि अयोगके बन्नी में एक संज्ञी पर्याप्त ही जीवसमास होता है ।। ६६६।। मार्ग गानों में जीतरामासों का कथन तिरियगदीए चोद्दस हवंति सेसेसु जारण वोदो दु । मगरहयारणस्से सेवाणि समासठाणाणि ।।७००।। गाथार्थ-- तिर्यच गति में १८ जीबसमास होते हैं, परन्तु अवशिष्ट गति नरकगति, मनुष्यगति व देवगति, इन तीन गतियों में मात्र मंजीपर्याप्त व संज्ञी अपर्याप्त-ये दो ही जीवसमास होते हैं । इस प्रकार यथायोग्य पूर्वकथित कम से समस्त मार्गणामों में जीवसमास जानने त्राहिए ।।७००।। विशेषार्थ ---जातिमार्गणा में एकेन्द्रिय जाति में एकेन्द्रिय सम्बन्धी ४ जीवसमास होते हैं (बादर, सूक्ष्म व इनके पर्याप्त व अपर्याप्त)।४ द्वीन्द्रिय जाति में द्वीन्द्रिय सम्बन्धी दो जीवसमास होते हैं।" त्रीन्द्रियजाति में त्रीन्द्रिय सम्बन्धी दो (त्रीन्द्रिय पर्याप्त व श्रीन्द्रिय अपर्याप्त, ऐसे सर्वत्र लगाना) जीवसमास होते हैं। चतुरिन्द्रिय जाति में स्वमम्बन्धी दो जीवममास होते हैं। पंचेन्द्रिय जाति ४ (संज्ञी व असंजी पंचेन्द्रिय । प्रत्येक के पर्याप्त व अपर्याप्त ऐसे ४) जीवसमास होते हैं। कायमार्गणा में त्रसकाय में १० जीबममाम होते हैं।' (हीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय असंज्ञी व संज्ञी---ये कुल पाँच । इन सबके पर्याप्त व अपर्याप्त, ऐसे कुल दस हुए ।) स्थावरकाय में चार जीवसमास होते हैं। एकेन्द्रिय सूक्ष्म व बादर नथा दोनों के पर्याप्त व अपर्याप्त-ऐसे ४) पांचों स्थावरकायों में से प्रत्येक में यह लगाना चाहिए । __ योगमार्गणा में मनोयोग में एक मात्र संजोगति जीवसमास है । बचनयोग में हीन्द्रिय से लेकर सैनी नक के पर्याप्तावस्था में सम्भव जीवसमास यानी ५ जीबसमास होते हैं।" (असत्यमृषा को छोड़कर अन्य बननयोगों में मात्र संजी पर्याप्तक जीवसमास है, इतना विशेष है। १. प्रा.प.सं. ४।२६ पृ. ८६। २. प.पू. २ पत्र ४४४ यथा-मजोगिके बलीरण भण्यामाग अधि दो जीवममासा....... | ३. प्रजोगिवे वलीण भागामागो गो जीवरामामा........ध.पू. २ पत्र ४९हन ४५० यादि। ४. घ. पु. २।५-१। ५. प. पु. २।५७७, प्रा. पं. सं. गा. ६ पृ. ८२। ६. घ. पु. ६।५८१: प्रा. पं. सं. ४।६।२। ७. श्र. पु. २।१८१प्रा. पं. म. ४ २ ८. घ. पु. २१५८३ प्रा. प. सं. ४TE२ । ६. प. पु. २ पृ. ६२२ व प्रा. पं. सं. ४।१०८२ । १५. घ. पृ. २ पृ. ६३० मे ६३५ । ११. ध. पु. २ पृ. ६३५ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833