Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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७५२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६६४-६२५ कसे सम्भव है ?
समाधान नहीं, क्योंकि जिन जीवों की कवाय क्षीण अथवा उपशान्त हो गई हैं, उनमें कमलेप का कारण योग पाया जाता है, इसलिए उनके शुक्ल लेश्या मानने में कोई विरोध नहीं आता !'
तेरहवें गुणस्थान से भागे सभी जीव लेश्यारहित है ।।१४०। शंका-यह कैसे?
समाधान-बयोंकि वहाँ पर बन्ध के कारण भूत योग और कषाय का अभाव है। इस तरह शुक्ल लेपमा में तेरह गगास्थानों का मन करके, पायोगवली और सिद्ध जीवों को लेश्यारहित वतलाया गया।
भव्य मार्गणा में गुणस्थानों का कथन थावरकायप्पहुदी प्रजोगि चरिमोत्ति होंति भवसिद्धा।
मिच्छाइडिट्ठाणे प्रभवसिद्धा हवंति ति ॥६६४।। गाथार्थ- भव्य सिद्ध में स्थावरकाय (मिथ्यात्व गगस्थान) से लेकर अयोगि नामक अन्तिम गुणस्थान तक होते हैं । अभव्य सिद्ध में एक मिथ्यात्व गुणास्थान ही होता है ॥६६४।।
विशेषार्थ - भव्य सिद्ध जीव एकेन्द्रिय से लेकर अयोगिकेवली गणस्थान तक होते हैं ।।१४२।।। जितने भी जीव ग्राज तक सिद्ध अवस्था को प्राप्त हुए हैं या होंगे वे सब नित्य निगोद से निकले थे या निकलेंगे इसीलिए भव्य जीव स्थावरकाय अथवा एकेन्द्रिय में हमेशा पाये जाते हैं। दूसरे से चौदहवें गुणस्थान तक तो भव्य जीवों के ही होते हैं । स्थावर या एकेन्द्रिय कहने से मिथ्यात्व गुणस्थान का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि एकेन्द्रियों में व स्थाघरों में एक मिथ्यात्व गणस्थान ही होता है।
अभव्य सिद्ध जीव एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी मिथ्वादृष्टि तक होते हैं ।।१४३।।५ अभव्य जीव चौदह जीवसमासों में पाये जाते हैं, किन्तु उनके एक मिथ्यात्व गुगास्थान ही पाया जाता है, क्योंकि प्रथमोपशम सम्यक्त्व के बिना मिथ्यात्वकम के तीन खण्ड नहीं होते और अभव्य जीवों में सम्यक्त्व प्राप्त करने की शक्ति नहीं है।
मम्मबत्द मार्गणा में गणस्थानों का कथन मिच्छो सासरग-मिस्सो सगसगठाएम्मि होदि प्रयदादो । पढमुवसमवेदगसम्मत्तदुर्ग अप्पमत्तो ति ॥६६५।।
१. धवल पु. १ पृ. ३६१ । २. "तंग परमलेसिया ।।१४०।। | धन पु. १ पृ. ३६२] | ३. प. पु.१ पृ. ३१२ । ४. "भवसिद्धियाइदिय-स्पडि जाव प्रजोगि केलि ति !"।।१४२।। [घाल पु. १ पृ. ३६४] | ५. "प्रभवसिद्धिया एदिय-पहृष्टि जाव समि-मिच्छाइट्टि सि ।।१४३।।" [धवल पु. १ पृ. ३६४] ।