Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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अन्तर्भाव / ७५१
गाथा ६६२-६६३
गुणस्थान) से लेकर होता है, क्योंकि स्थावर काय एकेन्द्रिय व मिध्यादृष्टि होते हैं। प्रचक्षुर्दर्शन में भी मिथ्यात्व से लेकर क्षीणकषाय तक बारह गुणस्थान होते हैं। अवधिदर्शन में असंयत सम्यक्त्व से लेकर क्षीणमोह तक नो गुणस्थान होते हैं । केवलदर्शन में सयोगकेवली प्रयोगकेवली ये दो गुगास्थान और सिद्ध जीव होते हैं ।
श्यामागंगा में गुणस्थानों का कथन
प्रविरदसम्मोति प्रसुहृतियलेस्सा | सुहतिणिस्सा ॥ ६६२ ।।
वरिय सुक्का लेस्सा सजोगिचरिमोत्ति होदि रियमेण । गयजोगिम्मि वि सिद्ध लेस्सा गत्थित्ति सिद्दिट्ठ ।।६६३॥
थावर काय पहूदी सीदो श्रपमत्तो जाव दु
गाथार्थ - अशुभ तीन लेश्या स्थावर काय से लेकर अविरत सम्यष्टि तक होती हैं। तीन शुभ लेश्या संज्ञी से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती हैं, किन्तु शुक्ल लेश्या सयोगकेवली गुगास्थान के अन्त तक होती है। प्रयोगकेवली और सिद्धों में लेश्या नहीं होती ।।६६२ - ६६३ ॥
विशेषार्थ - कृष्णलेश्या, नील लेश्या और कापोत लेश्या में स्थावर काय अर्थात् एकेन्द्रिय मे लेकर असंयतसम्यग् गुणस्थान तक होते हैं ।। १३७ ।। ' अर्थात् तीन अशुभ लेश्याओं में आदि के चार गुणस्थान होते हैं ।
शङ्का - चौथे गुणस्थान तक ही आदि की तीन लेण्या क्यों होती हैं ?
समाधान तीव्रतम, तीव्रतर और तीव्रकषाय के उदय का सद्भाव चौथे गुणस्थान तक ही पाया जाता है, अतः यहाँ तक ही तीन अशुभ लेश्याएँ होती हैं । *
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पोत और पद्म लेश्या वाले जीव संज्ञो मिध्यादृष्टि से लेकर श्रप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होते हैं ।। १३८ || अर्थात् इन दो लेश्याओं में यादि के सात गुणस्थान होते हैं ।
शङ्का - ये दोनों शुभ लेश्याएं सातवें गुणस्थान तक कैसे पाई जाती हैं ?
समाधान- क्योंकि इन लेग्यावाले जीवों के तीव्र प्रादि कषायों का उदय नहीं पाया जाता शुक्ल लेश्या वाले जीव संजी मिध्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली गुणास्थान तक होते हैं । " शंका- जिन जीवों की कषाय क्षीण अथवा उपशान्त हो गई हैं, उन जीवों के शुक्ल लेश्या
१. "किहलेसिया मलेन्सिया काउलेरिसया दिव्यडि जाव असंजदसम्माइदिनि ॥१३७।।" [घवल पु. १ पृ. ३६० ] । २ यवल . १ पृ. ३९१ । ३. "ते उलेसिया पम्मलेसिया सगिमिन्छाइड प्पहूडि जाव द्यप्पमत्तमंजदा त्ति ।।१३।। [चवल पु. १ पृ. ३६१] । मिच्छाइट्टि पहूडि जाव सजोगिकेवलित्ति ॥१३६॥
४. व. पु. १ पृ. ३६१ । ५. " शुक्कलेम्मिया मथिला[बल पु. १ पृ. ३६१] ।