Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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७५० गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६६१ असंयत में एकेन्द्रिय (मिथ्याष्टि) से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होते है ।।१३।।
शंका-कितने ही मिथ्यादृष्टि जीब संयत देखे जाते हैं ? समाधान नहीं, क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती। शङ्का-सिद्ध जीवों के कौनसा संयम होता है ?
समाधान-(संयममार्गणा में से) एक भी संयम नहीं होता है। उनके बुद्धिपूर्वक निवत्ति का अभाव होने से वे संयत नहीं हैं, संयतासंयत नहीं हैं और असंयत भी नहीं हैं, क्योंकि उनके सम्पूर्ण पाप-क्रियाएँ नष्ट हो चुकी हैं । २ विषयों में दो प्रकार के असंयम अर्थात् इन्द्रियासंयम और प्राणिवध रूप से प्रवृत्ति न होने के कारण सिद्ध असंयत नहीं हैं। इसी तरह सिद्ध संयत भी नहीं हैं, क्योंकि प्रवृत्तिपूर्वक उनमें विषयनिरोध का अभाव है । तदनुसार संयम और असंयम इन दोनों के संयोग से उत्पन्न संयमासंयम का भी सिद्धों के प्रभाव है । [धवल पु. ७ पृ. २१]। इस प्रकार संयममार्गणा के सात भेदों का सिद्धों में प्रभाव होने पर भी सिद्धों में चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय हो जाने से क्षायिक चारित्र है, क्योंकि क्षायिक भाब का नाश या प्रभाव नहीं होता।
दर्शनमार्गगा में गुणस्थान चउरक्खथावरविरवसम्माइटी दुखीरगमोहोत्ति । चक्खुपचक्खू प्रोही जिणसिद्ध केवलं होदि ॥६६॥
गाथार्थ - चक्षुर्दर्शन चतुरिन्द्रिय से लेकर क्षीणमोह पर्यन्त होता है। अचक्षुर्दर्शन स्थावरकाय (मिथ्याष्टि) से लेकर क्षीरामोह पर्यन्त होता है । अवधिदर्शन अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर क्षोए।मोह पर्यन्त होता है। केवलदर्शन जिन व सिद्धों में होता है ||६६१।।
विशेषार्थ--चक्षुर्दर्शन में मिथ्यात्व गणस्थान से लेकर क्षीणमोह तक बारह गणस्थान होते हैं। माथा में 'चरिन्द्रिय से लेकर' इन पदों के द्वारा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय इन जीवों का निषेध हो जाता है अर्थात् एकेन्द्रिय से त्रीन्द्रिय जीवों तक चक्षुदर्शन नहीं होता है। चतुरिन्द्रिय जीवों में मात्र एक मिथ्यात्व गणस्थान होता है अतः चतुरिन्द्रिय जीवों से लेकर अर्थात् मिथ्यात्व गणस्थान से लेकर, ऐमा ग्रहण करना चाहिए । चक्षुर्दशन स्थावरकाय से लेकर अर्थात् एकेन्द्रिय (मिथ्यात्व
१. "असं जदा (इदिय प्प डि जाव असंजद सम्माष्टुि त्ति ।। १३०:"[धवल पु. १ पृ. १५८]। २. धवल पु. १ पृ. ३७८ । ३. रा. दा. २१४/७। ४. "च-दसगी वरिदिय-प्पष्ठि जाव खीराकसाय-वीय रायछबुमत्था त्ति ॥१३२।। ५. "अचवदंसगी इंदिय पहरि जान स्वीकसाय-बीयराय दुमत्या नि।।१३३॥"
धवन पु. १ . ३३] । ६. प्रोधि दंसरणी अमंजव सम्माइट्टि-पहुडि जाव रवीगा-कमाय बीमा राय-मृदुमत्था त्ति ॥१३४॥ [धवल पु. १ पृ. ३०४]। ७. केवलदसणी तिमु टाणेसु मजोगिवली अजोगिकदली सिद्धा चेदि ।।१३५।।" [घवल पु. १ पृ. ३८५] ।