Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 781
________________ गाथा ६८६-६६० अन्त वि/७४७ समाधान-नहीं, क्योंकि जिनके सम्पूर्ण प्रावरण कर्मनाश को प्राप्त हो गये है, ऐसे अरिहन्त परमेष्ठी के ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम नहीं पाया जाता है, इसलिए क्षयोपशम के कार्य रूप मन भी उनके नहीं है। उसी प्रकार बीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई शक्ति की अपेक्षा वहाँ पर मन का सदभाव नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि जिनके वीर्यान्त राय कर्म का क्षय पाया जाता है, ऐसे जीव के वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई शक्ति का सद्भाव मानने में विरोध प्राता है।' शंका-फिर अरिहन्त परमेष्ठी को सयोगी कैसे माना जाय ? समाधान नहीं, क्योंकि प्रथम (सत्य) और चतुर्थ (अनुभय) भाषा की उत्पत्ति के निमित्तभूत प्रात्मप्रदेशों का परिस्पन्द वहां पर पाया जाता है, इसलिए इस अपेक्षा से अरिहन्त परमेष्ठी के सयोगी होने में कोई विरोध नहीं पाता। शङ्का-अरिहन्त परमेष्ठी के मन का अभाव होने पर मन के कार्यरूप वचन का सदभाव भी नहीं पाया जा सकता है । समाधान-नहीं, क्योंकि वचन ज्ञान के कार्य हैं, मन के नहीं। शङ्कर-प्रक्रम ज्ञान से ऋमिक वचनों की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? समाधान-नहीं, पयोंकि घटविषयक अक्रम ज्ञान से युक्त कुम्भकार द्वारा क्रम से घट की उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिए अक्रमवर्ती ज्ञान से कमिक वचनों की उत्पत्ति मान लेने में कोई विरोध नहीं पाता है। शङ्खा-सयोगिकेवली के मनोयोग का अभाव मानने पर, सत्य मनोयोग असत्यम्पा मनोयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली तक होता है गाथा के इस वाक्य से विरोध पाजायेगा? समाधान नहीं, मन के कार्य रूप सत्य और अनुभय भाषा के सद्भाव की अपेक्षा उपचार से मन के सद्भात्र मान लेने में कोई विरोध नहीं पाता है । अथवा, जीवप्रदेशों के परिस्पन्द के कारणरूप मनोवर्गणारूप नोकर्म से उत्पन्न हुई शक्ति के अस्तित्व की अपेक्षा सयोगिकेवली में मन का सद्भाव पाया जाता है, ऐसा मान लेने में भी कोई विरोध नहीं पाता है। संयममार्गरण। मे मुणस्थानों का कथन प्रयदोत्ति हु अविरमणं देसे देसो पमत्त इदरे य । परिहारो सामाइयछेदो छट्ठादि थूलोत्ति ॥६८६।। सुहमो सुहमकसाये संते खीणे जिणे जहक्खादं । संजममग्गरण मेवा सिद्ध रणस्थिति गिट्ठि ॥६६०।। १. धवल पु.१ पृ. ३६.७ । २. धवल पु. १ पृ. ३६८ ।

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