Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ६८७-६८८
अन्तर्भाव ४३
विशेषार्थ- स्थावरकाय अथवा एकेन्द्रिय जीवों से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक चारों कापाय होती है । स्थावरकाय में नियम से मिथ्यात्व गुणस्थान होता है। इसलिए स्थावर मे लेकर, ऐगा कहने का अभिप्राय मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण अर्थात् नौवें गुणस्थान के दूसरे, तीसरे ब चौथे भाग तक क्रमशः क्रोध, मान, माया कपाय होती है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि क्रोध, मान, माया इन तीन कपायों में प्रथम गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुरास्थान तक नौ गुणस्थान होते हैं और लोभकषाय में प्रथम मिथ्यात्व गृणास्थान से लेकर सूक्ष्म साम्पराय दसवें गुणस्थान तक दरा मुगास्थान होते हैं म्यारहवाँ, बारहवाँ, तेरहवा और चौदहवाँ ये चार गुणस्थान अकषायी जीवों के होते हैं, क्योंकि इन चार गुणस्थानों में किसी भी कषाय का उदय सम्भव नहीं है ।
शंका - अपूर्वकरण आदि गुणा श्रान वाले साधुत्रों के कषाय का अस्तित्व कम पाया जाता है?
समाधान-नहीं, क्योंकि अव्यक्त कषाय की अपेक्षा वहां पर कषायों के अस्तित्व का उपदेश दिया है।
शङ्का शेष तीन कषायों के उदय के नाश हो जाने पर उसी समय लोभ कमाया का विनाश क्यों नहीं हो जाता?
समाधान- अनिवृत्तिकरण मृणास्थान में लोभ कषाय का विनाश नहीं होता, क्योंकि लोभवपाय की अन्तिम मर्यादा सूश्मसाम्पराय गृगस्थान है। इसलिए क्रोधादि तीन कषायों के उदय का नाश हो जाने पर भी अनिवृत्ति करा गुणस्थान में लोभकषाय के उदय का विनाश नहीं होता।
शङ्का-अनन्त कषाय-द्रव्य का सद्भाव होने पर भी उपशान्त कषाय गुणस्थान को कपायरहित कसे कहा गया ?
समाधान-पाय के उदय के प्रभाव की अपेक्षा उसमें कषायों मे रहितपना बन जाता है।'
जानमा गंगा में गुग्गस्थानों का कथन थावरकायप्पहदी मदिसुदप्रणायं विभंगो दु । सपणीपुरणप्पहुदी सासरणसम्मोत्ति गायवो ॥६८७।। सण्णागतिग अविरदसम्मादी छट्टगावि मरणपज्जो। खीरणकसायं जाय दु केवलगाणं जिणे सिद्ध ॥६८८।।
गाथार्थ - मत्यज्ञान और ताज्ञान स्थावरकाय से लेकर सासादन गुणस्थान तक होने हैं। विभंगज्ञान संज्ञो पर्याप्त से लेकर सासादन सम्यक्त्व पर्यन्त होता है ॥६८७॥ नोन सम्यम्ज़ान अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर क्षोणकषायपर्यन्त होने हैं। मनःपर्यय ज्ञान छरे गुणस्थान से क्षीगाकपाय तक होना
१. घयल पृ. १ पृ. ३५१ । २. धयन . १ पृ. ३५२ । ३. धवल पु. १ पृ. ३५२ । ४ "मदि-अग्णागती मुद-अणगाणी पइदिय-प्पहुष्टि जाव सामगसम्माइदित्ति ॥११६।।" [धवल पु. १ पृ. ३६१]। ५. 'विभगरणारा मणि-मिन्छाइट्टी वा सामगमम्मदीयं वा ।।१७।। पजनाणं अत्थि, अपनत्ताण गन्थि ।।११।।" [घवल पु. १ पृ. ३६२] ।