Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाया ६७७-६७८
अन्तर्भाव / ७३७
भाग से पत्योपम में भाग देने पर इन तीनों ज्ञानियों की संख्या प्राप्त होती है । मन:पर्ययज्ञानी असंख्यात हैं । केवलज्ञानी अनन्त हैं, क्योंकि सिद्ध भगवान भी केवलज्ञानी हैं ।"
चक्षुर्दर्शनी प्रसंख्यात हैं, क्योंकि सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग के वर्ग से जगत्प्रतर को अपहृत करने पर चक्षुर्दर्शनी राशि प्राप्त होती है । प्रचक्षुर्दर्शनियों का प्रमाण मतिप्रज्ञानियों के समान है । अवधिदर्शनियों का प्रमाण अवधिज्ञानियों के समान है और केवलज्ञानियों के समान केवलदर्शनियों का प्रमाण है | 3
इस प्रकार गोम्मटसार जीवकाण्ड में उपयोग प्ररूपणा नामक बीसवाँ अधिकार पूर्ण हुया ।
२१. अन्तर्माधिकार
बीस प्ररूपणाओं का कथन करके अब अन्तर्भावाधिकार का कथन किया जाता है
प्रतिज्ञा
गुणजीवा पज्जत्ती पारणा सण्णा य मग्गणुवजोगो । जोग्गा परुविदया प्रोघासेसु
पत्तेयं ॥६७७ ||
गाथार्थ -- ओघ ( गुणस्थानों) में और आदेश ( मार्गणाओं ) में गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, मागंणा और उपयोग का निरूपण किया जायेगा ||३७७ ||
मार्गणाओं में गुग्गुणस्थानों का कथन
चपण चोद्दस चउरो खिरयाविसु बोद्दसं तु पंचषखे । तसकाये सेसिदिकाये मिच्छं गुट्टा ॥२६७८ ।।
गाथार्थ - नरक गति में चार गुणस्थान, तिर्यत्र गति में पाँच मुगास्थान, मनुष्यगति में चौदह गुणस्थान और देवगति में चार गुणस्थान होते हैं। पंचेन्द्रिय और उस काय में चौदह गुरणस्थान, और शेष इन्द्रियों व काय में एक मिथ्यात्व गुणस्थान होता है ||६७८ ।।
विशेषार्थ - सानों नरकों में चारों गुणस्थान होते हैं । श्रपर्याप्त अवस्था में मात्र प्रथम नरक में चतुर्थं गुणस्थान होता है शेष छह नरकों में प्रथम मिथ्यात्व गुरणस्थान होता है। दूसरा और तीसरा गुणस्थान पर्याप्त अवस्था में किसी भी नरक में नहीं होता । तियंत्रों में प्रथम पांच गुणस्थान होते हैं, किन्तु तीसरा और पाँचवाँ गुणस्थान संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त निर्मंचों पर्याप्त अवस्था में ही होता है किन्तु दूसरा और चौथा गुणस्थान पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों अवस्थाओं में हो सकता है । प्रथम गुणस्थान सभी तिर्यचों के सब अवस्थाओं में सम्भव है। मनुष्यों में चौदह गुणस्थान होते हैं । मनुष्य के निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में पहला, दूसरा, चौथा गुणस्थान होता है किन्तु मनुष्यिनी के चौधा
१. धवल पु. ७ पृ. २६६-२७ । २. धवल पु. ७ पृ. २६० २६२ ।