Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 772
________________ ७३८ / गो. सा. जीवकाण्ड लब्ध्य पर्याप्त मनुष्य के प्रथम गुणस्थान ही गुणस्थान निर्ऋत्यपर्याप्त अवस्था में नहीं होता । होता है। देवों में चार गुणस्थान होते हैं। अपर्याप्त अवस्था में पहला, दूसरा, चौथा ये तीन गुणस्थान होते हैं। तीसरा गुणस्थान पर्याप्त अवस्था में ही होता है । भवनत्रिक देवों के पर्याप्त अवस्था में पहला और दूसरा ये दो ही गुणस्थान होते हैं, तीसरा और चौथा गुणस्थान मात्र त अवस्था में ही होता है । ' माथा ६७९-६८४ इन्द्रियमार्गणा के अनुसार संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के चौदह गुणस्थान होते हैं। किन्तु निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में पहला, दूसरा और चौथा ये तीन गुणस्थान होते हैं। तीसरा और पाँचवें से दहवें तक ये गुणस्थान पर्याप्त अवस्था में ही होते हैं । केवली समुद्घान की अपेक्षा तेरहवाँ गुणस्थान पर्याप्त अवस्था में भी सम्भव है । एकेन्द्रिय से प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय तक सब जीवों के पहला मिथ्यात्व गुणास्थान ही होता है। कायमाणा के अनुसार स्थावरों के एक पहला मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है। बस में चौदह स्थान होते हैं के पहला, दूसरा व चौथा ये तीन गुणस्थान सम्भव हैं । शेष गुणस्थान पर्याप्त अवस्था में ही होते हैं। केवन्नी समुद्घात की अपेक्षा तेरहवाँ गुगास्थान अपर्याप्त अवस्था में भी सम्भव है । -- योमगंगा में गुणस्थानों का कथन मज्झिमच उमरवणे सगियहुदि दु जाय खीगोत्ति । सेसारखं जोगित्ति य श्रणुभयवयर ं तु ओरालं पज्जते थावरकायादि जाव तम्मिस्समपज्जते दुगुठार मिच्छे सासर सम्मे पु 'वेदयदे कवाडजोगिम्मि | तिरियेवि य दोणिवि होंतित्ति जिणेहि सिहि ।।६८१ ।। वेगुवं पज्जते इवरे खलु होदि तस्स मिस्सं तु । सुररियचउट्ठाणे मिस्से राहि मिस्सजोगो हु ।।६८२ ।। श्राहारो पज्जन्ते इवरे खलु होदि तस्स मिस्सो दु । तोमुत्तकाले छट्टगुणे होदि श्राहारो ||६६३|| श्रोलियमस्सं वा चउगुरगठाणेसु होदि कम्मइयं । दुर्गादिविग्गहकाले जोगिस्स य पदरलोगपूरणगे ।। ६८४ ।। गाथार्थ मध्य के चार मनोवलन योग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक होते हैं । शेष मनोयोग व वचनयोग सयोगकेवली पर्यन्त होते हैं किन्तु यनुभय विकलेन्द्रियों के भी १.२.३. धवल पु. २ गतिमा गंगार, इन्द्रियमार्गणा, कायमगंगा | वियलादो ॥६७६ ॥ जोगोत्ति । रियमे ।।६८० ॥

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