Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
६३२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५६३-५९४
शंका–उपयोग अस्थिर है अतः वह आत्मा का लक्षण नहीं हो सकता। अस्थिर पदार्थ को लक्षण बनाने पर वही दशा होगी, जैसे किसी ने देवदत्त के घर की पहचान बतलाई कि "जिस पर कोपा बैठा है वह देवदत्त का घर है ।" जब कोपा उड़ जाता है तो देवदत्त के घर की पहचान समाप्त हो जाती है।
समाधान--- नहीं, क्योंकि एक उपयोग-क्षण के नष्ट हो जाने पर भी दूसरा उसका स्थान ले लेता है, कभी भी उपयोग की धारा टूटती नहीं है। पर्यायष्टि से अमुक पदार्थ विषयक उपयोग का नाश होने पर भी द्रव्यपीट से उपयोग सामान्य नाही रहता है। यदि उपयोग का सर्वथा विनाश माना जाय तो उत्तर काल में स्मरण प्रत्यभिज्ञान आदि नहीं हो सकेंगे, क्योंकि स्वयं अनुभूत पदार्थ का स्मरण स्वयं को ही होता है अन्य के द्वारा अनुभूत का अन्य को नहीं। स्मरण के प्रभाव में समस्न लोकव्यवहार का लोप ही हो जाएगा।'
वर्ण चतुष्क अर्थात् स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णा ये चारों पुद्गल के लक्षण हैं ।
शंका- स्पर्श, रस, गन्ध का नामोल्लेख गाथा में क्यों नहीं किया ?
समाधान- नहीं, क्योंकि स्पर्श-रस-गन्ध, वर्ण के अविनाभावी हैं, इसलिए वर्ण में उनका अन्तर्भाव हो जाता है। अथवा 'चऊ' शब्द के द्वारा उनका ग्रहण हो जाता है।
जो स्पर्श किया जाता है, उसे या स्पर्शनमात्र को स्पर्श कहते हैं। कोमल, कठोर, भारी, हल्का, ठण्डा, गरम, स्निग्ध और रूक्ष के भेद से स्पर्श आठ प्रकार का है। जो स्वाद रूप होता है या स्वाद मात्र को रस कहते हैं। तोता, खट्टा, कडुआ, मीठा और कसैला के भेद से रस पांच प्रकार का है। जो सूघा जाता है या सूचनेमात्र को गन्ध कहते हैं। सुगन्ध और दुर्गन्ध के भेद से बह दो प्रकार ' का है। जिसका कोई वर्ण है या वर्णमात्र को वर्ण कहते हैं। काला, नीला, पीला, सफेद और लाल के भेद से वह पाँच प्रकार का है। ये स्पर्श आदि के मूल भेद हैं। वैसे प्रत्येक के संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद होते हैं। इस प्रकार ये स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण जिनमें पाये जाते हैं, वे पुद्गल हैं। इनका पुद्गल द्रव्य के साथ सदा सम्बन्ध है ।।
जं इंदिएहि गिझ रूवं-रस-गन्ध-फास-परिणाम। तं त्रिय पुग्गल-दम्ब अणंत-गुण जीवरासीदो ॥२०७।।
[स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा]
--जो रूप रस गन्ध और स्पर्श परिणाम वाला होने के कारण इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण करने योग्य होता है, वह सब पुद्गल द्रष्य है। उनकी संख्या जीबराशि से अनन्तगणी है क्योंकि प्रत्येक जीवप्रदेश पर अनन्त पुद्गल वर्गणा स्थित हैं।
१. राजवार्तिक २/८/२१-२२-२३ । २. "स्पर्शरसगन्ध बावन्तः पुद्गलाः ॥२३॥" [त. मू. प्र. ५] । ३. रमाद्यामिति चेतन, तदविनाभावात्तदन्तर्भावः "[स. सि ५/५]४. स सि.५/२३ । ५. "पूदगपदव्यम् इन्द्रियग्राह्य ध्यासगन्यम्पपरिणामत्वात् पृद्गलपर्यायत्वात् ।" [स्वामिवा तिकेयानुप्रेक्षा गा. २०७ की टीका] ।