Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ६६६
ग्राहारमार्गगणा/७२५
विशेषार्थ-विग्रह देह को कहते हैं। उसके लिए जो गति होती है, वह विग्रह गति है। यह जीव औदारिक प्रादि शरीर नाम-कर्म के उदय से अपने-अपने शरीर की रचना करने में समर्थ नाना प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण करता है, अतएव संभारी जीव के द्वारा शरीर का ग्रहण किया जाता है । इसलिए देह को विग्रह कहते हैं। ऐसे विग्रह अर्थात् शरीर के लिए जो गति होती है. वह विग्रह गति है । अथवा 'वि' शब्द का अर्थ विरुद्ध है और ‘ग्रह' शब्द का अर्थ 'घात' होने से विग्रह' माब्द का अर्थ व्यापात भी होता है, जिसका अर्थ पुद्गलों के ग्रहण करने का निरोध होता है। इसलिए विग्रह अर्थात पुदगलों के ग्रहण करने के विरोध के साथ जो गति होती है उसे विग्रह गति कहते हैं । अथवा विग्रह. व्याघात और कौटिल्य ये पर्यायवाची नाम हैं । इसलिए विग्रह से अर्थात् कुटिलता (मोड़ों) के साथ जो गति होती है, उसे विग्रह गति कहते हैं । उसको प्राप्त जीव विगहगदिमावण्णा कहलाता है।'
एक गति से दुसरी गति को गमन करने वाले जीव के चार गलियों होती हैं, इषुगति, पाणिमुक्ता गति, लांगलिका गति और गोमूत्रिकागति । उनमें पहली गति विग्नह (मोड़ा) रहित होती है और शेष गतियां विग्रह (मोड़े) सहित होती है। सरल अर्थात ऋजुगति एक समयवाली इषगति होती है। जैसे हाथ से तिरछे फेंके गये द्रव्य को एक मोड़े वाली गति होती है, उसी प्रकार संसारी जीव की एक मोड़े वाली गति को प्राणिमुक्ता गति कहते हैं। यह गति दो समय बाली होती है। जैसे हल में दो मोड़े होते हैं. बीजारो मोड़े वाली गति को लांगलिका गति कहते हैं । यह गति तीन समय वाली होती है। जैसे गाय का चलते समय मुत्र का करना अनेक मोड़ों वाला होता है, उसी प्रकार तीन मोड़े वाली गति को गोमुत्रिका गति कहते हैं। यह गति चार समयवाली होती है ।
एक मोडेवाली पाणिमुक्ता गति में जीव एक समय तक अनाहारक होता है। दो मोडेवाली लांगलिका गति में जीव दो समय तक नाहारक होता है । तीन मोड़े वाली गोमुनिका गति में जीब तीन समय तक अनाहारक रहता है ।
प्रातने रूप कार्य को धात कहते हैं । जिसका प्रकृत में अर्थ कर्मों की स्थिति, अनुभाग का विनाश होता है । उत्तरोत्तर होने वाले घात को उद्घात कहते हैं और समीत्रीन उद्घात समुद्घात
शंका- इस घात में समीचीनता है, यह कैसे सम्भव है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि बहुत काल में सम्पन्न होने वाले घातों से एक समय में होने वाला घान अधिक है. अतः इस घात में समीचीनता पाई जाती है।
समुद्घात को प्राप्त केवली को समुद्घातगत केवली कहते हैं ।
केवलीसमुद्घात दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपुरण चार प्रकार का होता है। लौटते हुए प्रतर, कपाट, दण्ड और शरीरप्रवेश ये चार क्रियाएँ होती हैं । इनमें से प्रतर, लोकपूरण और पुन: प्रतर इन तीन अवस्थाओं में तीन समयों के लिए समुद्घातगत के वली तीन समय तक अनाहारक रहते हैं ।" अयोगकेवली के अनाहारक का अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है 15 सिद्ध भगवान भी
१. धवल पु. १ पृ. २६६ २ . धवल पू.१.२६९-३००। ३. धबल पू.१. पृ. ३००। ४. "तकं द्वौ त्रीवाऽनाहाकः ।" ॥२/३०।। [न. सू.] । ५. धघन पु. १ पृ. ३००। ६. धवल पृ. १ पृ. ३०१ । 3-5 धवल पृ. ५ पृ. १५५ ।