Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ६६.६७१
माहारमार्गा /७३३
पाहारक और नगा काकाज अंगुलप्रसंखभागो कालो आहारयस्स उपकस्सो । कम्मम्मि प्रणाहारो उक्कस्सं तिणि समया हु १६७०।।
गाथार्थ - पाहारक का उत्कृष्ट काल अंगुल के असंख्यातर्वे भाग प्रमाण है। कार्मण शरीर में अनाहार का उत्कृष्ट काल तीन समय है ।।६७०।।
विशेषार्थ-प्राहारक जीवों का नाना जीब की अपेक्षा सर्व काल है किन्तु एक जीव की अपेक्षा आहारक का जघन्य काल अन्तमुहर्त अर्थात् तीन समय कम क्षुद्र भव प्रमाण है । कोई जीव तीन मोड़े (विग्रह करके) लेकर सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होकर चौथे समय में आहारक हुआ, फिर भुज्यमान प्रायु को कदलीघात से छिन्न करके अन्त में विग्रह करके निकलने वाले जीव के तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण मात्र जघन्य आहारक काल पाया जाता है । अधिक से अधिक अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यातासंख्यात अक्सपिरणी-उत्सपिणी काल तक जीव अाहारक रहता है।'
एक जीव की अपेक्षा अनाहारक का जघन्य काल एक समय है, क्योंकि एक विग्रह करके उत्पन्न होने वाले जीवों के यह काल पाया जाता है। अधिक से अधिक तीन समय तक जीव अनाहारक रहता है। क्योंकि समुद्घात करने वाले सयोगिकेबली ब तीन विग्रह करने वाले जीव के अनाहारत्व का तीन समयममाए काल पाया जाता है। अधिक से अधिक अन्तमुहूर्त काल तक भी जीव अनाहारक रहता है, क्योंकि अयोगिकेवली अनाहारक का अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है । अथवा पाँच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण काल के समान है।
आहारक द अनाहारन, जीवों की संख्या कम्मइयकायजोगी होवि अरणाहारयाण परिमाणं । तविरहिदसंसारो सन्धो पाहार-परिमाणं ॥६७१।।
गाथार्थ---कार्मण काययोगी जीवों का जितना प्रमारा है, उतना ही अनाहारक जीवों का प्रमागा है। संसारी जीवराशि में से कार्माकाययोगी जीवों का प्रमाण घटाने पर जो शेष रहे, उतने पाहारक जीय हैं ।।।६७१।।
विशेषार्थ · संध्यात पावली मात्र अन्तमुहर्त काल के द्वारा यदि सर्व जीवराशि का संचय होता है तो तीन समयों में कितना संचर होगा। इस प्रकार इच्छाराशि से फलराशि को गुरिणत क.रके जो लब्ध पाये उसे प्रमाणराशि से भाजित करने पर अन्त मुहूर्त काल से भाजित सर्व जीव राशि अाती है। यह अनाहारक जीवों का प्रमाण है। यहाँ पर अयोगी जिन का प्रमाण गौरव है, क्योंकि
२. धवल पु.७ पृ.१८५।
३. धवल पु. ४ पृ. ४८८ |
४. धवल पु.३
१. धवल पु. ५. १८४ व १.५। पृ. ४०३।