Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 765
________________ गाथा ६६७-६६ ८. जेसि श्राउ- समाई णामा गोवारिंग वेयणीयं च । ते प्रकय- समुग्धाया वच्चतियरे समुग्धाए ॥१६८॥ ' श्राहारमा गंगा/७३१ -जिन जीवों के नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म की स्थिति प्रायु कर्म के समान होती है, वे समुद्घात नहीं करके ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं । दूसरे समुद्घात करके हो मुक्त होते हैं ।। १६८ ।। इस गाथा के उपदेश को क्यों नहीं ग्रहण किया जाता ? समाधान – इस पूर्वोक्त गाथा में कहे गये अभिप्राय को तो किन्हीं जीवों के समुद्घात के होने श्रीरकिन्हीं जीवों के समुद्घात नहीं होने में कारण स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि सम्पूर्ण जीवों में समान प्रनिवृत्तिरूप परिणामों के द्वारा कर्मस्थितियों का घात पाया जाता है, अतः उनका श्रायु के समान होने से विरोध श्राता है। दूसरे क्षीणकषाय गुणस्थान के चरम समय में तीन अघातिया कर्मो की जघन्य स्थिति भी पल्योपम के श्रसंख्यातवें भाग सभी जीवों के पाई जाती है । शङ्का - श्रागम तर्क का विषय नहीं है । इसलिए इस प्रकार तर्क के बल से पूर्वोक्त गाथाओं के अभिप्राय का खण्डन करना उचित नहीं है । समाधान- नहीं, क्योंकि इन गाथानों का श्रागम रूप से निर्णय नहीं हुआ है अथवा यदि इन दोनों गाथाओं का आगम रूप से निर्णय हो जाय तो इनका ही ग्रहण रहा आवे । जब प्रायुस्थिति अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाती है और वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति अन्तर्मुहूर्त से अधिक हो तो भगवान, आत्मोपयोग प्रतिशय व्यापार विशेष से व यथास्यात चारित्र को सहायता से महासंवर सहित होकर शीघ्र कर्म परिपाचन में समर्थ और सर्व कर्मरज को उड़ाने में समर्थ ऐसे दण्ड, कपाट, प्रतर लोकपूरण समुद्र्यात को चार समयों में करते हैं। केबली जिन समुद्घात करते हुए पूर्वाभिमुख होकर या उत्तराभिमुख होकर कायोत्सर्ग से करते हैं या पल्यंकासन से करते हैं। वहां कायोत्सर्ग से दण्डसमुद्घात को करने वाले केवली के मूलशरीर की परिधि प्रमाण कुछ कम चौदह राजू लम्बे दण्डाकाररूप से जीवप्रदेशों का फैलना दण्डसमुद्घात है । यहाँ कुछ कम का प्रमाण लोक के नीचे और ऊपर लोक-पर्यन्त बालवलय से रोका गया क्षेत्र होता है। ऐसा यहाँ जानना चाहिए, क्योंकि स्वभाव से ही उस अवस्था में वातवलय के भीतर केवली के जीवप्रदेशों का प्रवेश नहीं होता। इसी तरह पल्यंकासन से समुद्घात करने वाले केवली जिन के दण्डसमुद्घात कहना चाहिए। इतना विशेष है कि मूलशरीर की परिधि से उस अवस्था में दण्डसमुद्घात की परिधि तिगुणी हो जाती है । जैसे कपाट मोटाई की अपेक्षा प्रल्प ही होकर लम्बाई और चौड़ाई की अपेक्षा बढ़ता है । उभी प्रकार यहाँ (कपाट समुद्घात में भी मूल शरीर के बाहुल्य की अपेक्षा अथवा उसके तिगुणे बाहल्य की अपेक्षा जीवप्रदेशों के अवस्थाविशेषरूप होकर कुछ कम १४ राजू प्रमाण आयाम की अपेक्षा तथा '७ राजू प्रमाण विस्तार की अपेक्षा अथवा वृद्धि हानिगत विस्तार की अपेक्षा वृद्धि को प्राप्त होकर १. धवल पु. १ पृ. २०४१ २. घवल पु. १ पृ. ३०४ । ३. जयघवल फलटण पृ. २२७८ ।

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