Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 760
________________ ७२६/गो. सा. जीवकाण्ड गाथा ६६७-६६८ अनाहारक हैं। अयोगकेवली और सिद्ध भगवान के योग का प्रभाव होने के कारण नोकर्मवर्गणाओं के ग्रहण का प्रभाव होने से वे अनाहारक हैं। आहारक जीव मिथ्यादृष्टि से लेकर मयोगिकेवली गुणस्थान तक होते हैं।' विग्रहगति को प्राप्त जीवों के मिथ्यात्व, सासादन और अविरत सम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान, समुद्घातगत केवलियों के सयोगिकेवली इन चार गुणस्थानों में रहने वाले जीव और अयोगकेवली तथा सिद्ध प्रमाहारक होत है। कहा भी है "प्रतरयोर्लोकपूरणे च कार्मणः । तत्र अनाहार इति ।" [स्वा. का. अ. पृ ३८८ गा. ४८७ टीका] दोनों प्रतर समुद्घाल व लोकपूरण में कामरण काययोग होता है और अनाहारक अवस्था होती है। समुद्घात का स्वरूप एवं भेद मलसरीरमछंडिय उत्तरदेहस्स जीवपिंडस्स । पिग्गमणं देहादो होदि समुग्धादणामं तु ॥६६७।।' वेयरणकसायवेगुब्धियो य मरणतियो समुग्घादो। तेजाहारो छट्ठो सत्तमओ केवलोणं तु ॥६६८।। गाथार्थ · मूल शरीर को न छोड़ कर उत्तरदेह के व जीवपिण्ड के प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना सो समुद्घात है ।।६६७। वह समुद्घात, वेदना, कषाय, बैंऋियिक, मारणान्तिक, तेजस, पाहारक और केवली इस तरह सात प्रकार का होता है ।। ६६८।। विशेषार्थ समुद्घात का विस्तृत कथन प्रसंगवश लेण्यामार्गणा के क्षेत्र व स्पर्शन का कथन करते हुए गाथा ५४३ की टीका में किया जा चुका है तथापि मूल गाथाओं के अनुसार पुनः यहाँ पर कथन किया जाता है। गा. ६६७ में "उत्तरदेहस्स' से अभिप्राय तेजस शरीर व कार्मण गरीर से है । मात्र आत्मप्रदेश बाहर नहीं निकलते, किन्तु उन पर स्थित कार्मण शरीर व तंजस शरीर के प्रदेश भी बाहर निकलते हैं। "मूलसरीरमछंडिय" अर्थात् मूल शरीर को न छोड़कर, यह कथन केवली समुद्घात के अतिरिक्त अन्य छह की अपेक्षा कहा गया है। क्योंकि लोकपूरण समुद्घान अवस्था में केवली १. धवल पु. ७ पृ. ४०६ । २.धवल पु. १ पृ. ४१० । ३. मुद्रित पुस्तक में यह गाथा ६६८ नम्बर की है किन्तु स्वरूप बताये बिना समुद्रात के भेदों का कथन उचित नही ग्रत: गाथा ६६८ को ६६७ और गाथा ६६७ को ६६५ लिखा गया है। ये दोनों गाथाएँ वहद द्रव्य संग्रह गा.१०की टीका में तथा स्वा. का.म.गा.१७६ की टीका में उद्घत हैं । गा. ६६८ प्रा. पं. सं.पृ. ४१ गा. १९६ है और धवल पु. ४ पृ. २६ पर मा. ११ है।

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