Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६५६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५
-१६
द्रमों की तथा व्यवहार काल की संख्या का कथन जीवा प्रणंतसंखाणंतगुरगा पुग्गला हु तत्तो दु । धम्मतियं एक्केक्कं लोगपदेसप्पमा कालो ॥५८८।। लोगागासपदेसे एक्केक्के जेट्ठिया हु एक्केक्का । रयणाणं रासी इव ते कालाणू भुणेयव्या ॥५८६।' ववहारो पुरण कालो पोग्गलदम्वादणंतगुणमेत्तो । तत्तो प्रणंतगुरिगदा प्रागासपदेसपरिसंखा ॥५६॥ लोगागासपदेसा धमाधम्मेगजीवगपदेसा । सरिसा ह पवेसो पुरण परमाणु प्रवटिवं खेत्तं ।।५६१॥
गाथार्थ-संख्या की अपेक्षाजीव अनन्त हैं, जीवों से अनन्तगुरणा पुद्गल हैं। धर्मादि तीन द्रव्य एक-एक हैं। लोकप्रकाश प्रदेशप्रमाण कालाणु हैं ।।५८८॥ लोकामाश के एक-एक प्रदेश पर जो एकएक स्थित है और रत्नराशि के समान भिन्न-भिन्न है वे कालाणु हैं ॥५८६ || पुद्गल द्रव्य से अनन्तगुणा व्यवहार काल है। व्यवहार काल से अनन्त गुरणे आकाशप्रदेश हैं ।।५१०|| लोकाकाश-प्रदेश के सश धर्म द्रव्य , अधर्म द्रव्य और एक जीव के प्रदेश हैं। जितने आकाशक्षेत्र में परमाणु ठहरता है, वह प्रदेश है ।।५६१।।
विशेषार्थ-जीव अनन्तानन्त हैं, जीवों से अनन्तगण पुद्गल हैं। लोकाकाश प्रदेशप्रमाण असंख्यात कालाणु हैं । धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रय अखण्ड होने से एक-एक हैं !'
शंका-काला लोक-प्रदेणप्रमाण क्यों हैं ?
समाधान- क्योंकि लोकाका के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कानाणु अवस्थित है और निष्क्रिय है । इसलिए कालाणु लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं ।कहा भी है -
लोयायासपदेसे इविकरके जे ठिया ह इक्किएका । रयणारणं रासी इव ते कालाणु प्रसंखवारिए ॥२२॥
[वृ. द्रव्यसंग्रह] -जो लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रत्नों के ढेर समान परस्पर भिन्न होकर एक-एक स्थित हैं, वे लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या के बराबर कालाणु असंख्यात द्रव्य हैं। ये कालाणु
१. धवल पू. ४१.३१५, पृ.११ पृ. ७६: स्वा. का. अ. गा. २१६ टीका; स. मि. ५/३६ पं. बा. गा. १०२ तात्पर्यवृत्ति टीका। २. "तनानन्तानन्तजीवा: १६, तेभ्योऽप्यनन्तगुणा: पुद्गलाः १६ ख, लोवाकाशप्रमितासंख्येयकालाणुद्रव्यारिण, प्रत्येक लोकाकाशप्रमाणं धर्माधर्मद्वयम् ।" [स्वा. का.म. गा. २१३ टीका]; "धर्माधमाकाश एकक एव प्रखण्डद्रव्यत्वात् कालाणबो लोकप्रदेश मात्रा इति ।" [स्वा. का. अ. गा. २१६ टीका]) ३. "लोकाकाणप्रमितासस्येयद्न्यारवीति ।" [वह द्रव्य संग्रह गा. २२ टीका] ।