Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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७१४/ गो. सा. जीवकाण्ड
सभी दर्शनमोहनीय कर्म का उदयाभावरूप उपशम होने से वे अन्तर्मुहूर्त काल तक उपशान्त रहते हैं । " सव्वोवसमे " ऐसा कहने पर सभी दर्शनमोहनीय कर्मों के उपशम से, ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप से विभक्त मिथ्यात्व सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन तीनों ही कर्मों का उपशान्त रूप में अवस्थान देखा जाता है ।"
उसी उपशान्त दर्शन मोहनीय के प्रथम समय में अर्थात् सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के प्रथम समय में सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और मिथ्यात्व संज्ञावाले तीन भेद उत्पन्न करता है ।
शङ्का इनकी इस प्रकार उत्पत्ति कैसे होती है ?
समाधान - जैसे यंत्र से कोदों के दलने पर उसके तीन भाग हो जाते हैं, वैसे ही श्रनिवृत्तिकरण परिणामों के द्वारा दलित किये गये दर्शनमोहनीय के तीन भेदों की उत्पत्ति होने में विरोध का प्रभाव है ।
काण्डकघात के बिना मिध्यात्व कर्म के अनुभाग को बात कर और उसे सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के अनुभाग रूप प्रकार से परिणमाकर प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होने के प्रथम समय में मिथ्यात्व रूप एक कर्म के तीन कर्मा अर्थात् भेद या खण्ड उत्पन्न करता है ।
मिच्छत्त मिस्स सम्म सरूवेरा य सत्तीवो य श्रसंखाणंतेण य
गाथा ६५०
ततिधा यदा ।
होंति भजियकमा १६००॥ [ लब्धिसार ]
- मिध्यात्वद्रव्य मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्व मोहनीय रूप तीन तरह का हो जाता है । द्रव्य की अपेक्षा सम्यकत्व प्रकृति और मिश्र प्रकृति में मिथ्यात्व का असंख्यातवाँ भाग द्रव्य होता है और मिथ्यात्व का अनन्तवाँ भाग अनुभाग सम्यक्त्व और मिश्र प्रकृति में होता है ।
प्रथमोपशम सम्यक्त्व के प्रथम समय में ही अनन्त संसार को काट कर अर्धद्गल परिवर्तन मात्र संसारस्थिति कर देता है। कहा भी है-
"एक्केण श्रादियमिच्छ। दिट्टिणा तिथिग करवाणि काढूण उवसमसम्मत्तं पडियष्णपतमसमए प्रांतो संसारी द्विष्णो श्रद्धपोम्पलपरियट्टमेसी को" ।"
१. जयघवल पु. १२ पृ. ३१५ । ४. धवल पु. ५ पृ. ११ ।
- एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव तीन करण करके उपशम सभ्यवत्व को प्राप्त होने के प्रथम समय में अनन्त संसार को छिन्न कर अर्धपुद्गल परिवर्तन मात्र कर देता है । प्रथमोपशम सम्यक्त्व परिणाम से इतना महान कार्य हो जाता है । प्रथमोपशम सम्यक्त्व परिणाम में अथवा अतिवृत्तिकरण में ही इतनी शक्ति है जो अनन्तानन्त संसार काल को छेद कर अत्यल्प ऐसे अर्ध पुद्गल परिवर्तन मात्र कर देते हैं। अन्य प्रकार से संसारस्थिति अर्धपुद्गल परिवर्तन मात्र नहीं हो सकती ।
२. जयधवल पु. १२ पृ. २८१ ।
३. धवल पु. ६ पृ. २३५ ।