Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ६६०-६६३
१८. संज्ञिमागंणाधिकार
मार्गणा / ७२१
संजी व संत्री जीवों का स्वरूप
लोइंदिय प्रावरण- खप्रोवसमं तज्जवोहणं सगा 1 सा जस्स सो दु सरणी इदरो सेसिंदिग्रवबोहो ||६६० ॥ सिक्खा कि रियुवदेसालाबग्गाही
मरणोबलंबेरा ।
जो जीवो सो सण्णी तव्विवरीश्रो प्रसरणी दु ।।६६१।। '
मीमंसदि जो पुग्वं कज्जमकज्जं च तच्चमिदरं च । सिक्खदि खादि य समरगो मरणो य विवरीदो ||६६२ ॥ ३
गाथार्थ - नोइन्द्रिय ( मन ) प्रावरण कर्म का क्षयोपशम और उससे उत्पन्न हुआ ज्ञान संज्ञा है । यह संज्ञा जिसके होती है, वह संजी है और असंज्ञी के मात्र इन्द्रियजन्य ज्ञान होता है ।। ६६०॥ जो जीव मन के अबलम्बन से शिक्षा, क्रिया, उपदेश और मालाप को ग्रहण करता है, वह संज्ञी है । उससे विपरीत प्रसंज्ञी है ।। ६६१।। जो जीव कार्य करने से पूर्व कर्तव्य और अकर्त्तव्य का विचार करे, तत्त्व-तत्त्व को सीखे, नाम से पुकारने पर श्रावे, वह समनस्क है और इससे विपरीत अमनस्क है ४६६२ ।।
विशेषार्थ जो भली प्रकार जानता है, वह संज अर्थात् मन है । वह मन जिसके पाया जाता है वह समनस्क है ।' मन दो प्रकार का है द्रव्य मन और भाव मन । उनमें से द्रव्य-मन पुद्गलविपाकी अंगोपांग नाम कर्म के उदय से होता है तथा वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने वाली श्रात्म-विशुद्धि भाव मन है। जिनके मन नहीं पाया जाता, वे श्रमनस्क हैं । इस प्रकार मन के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा संसारी जीव दो प्रकार के हैं । * जो समनस्क हैं वे ही संज्ञी जीव हैं। संज्ञा शब्द के अनेक अर्थ है । संज्ञा का अर्थ नाम है । यदि नामवाले जीव संज्ञी माने जायें तो सब जीवों को संज्ञीपने का प्रसंग प्राप्त होता है। संज्ञा का प्रथ यदि ज्ञान लिया जाता है, तो भी सभी प्राणी ज्ञानस्वभाव होने से सब को संज्ञोपने का प्रसंग प्राप्त होता है । यदि प्राहारादि विषयों की अभिलाषा को संज्ञा माना जाए तो भी पहले के समान दोष प्राप्त होता है। इस प्रकार सबको संज्ञीपने का दोष प्राप्त न हो इसलिए समनस्क जीवों को ही संजी कहा गया है।"
शङ्खा --- भली प्रकार जो जानता है वह संज्ञी है, यह लक्षण एकेन्द्रियादिक में चला जाएगा, इसलिए अतिप्रसंगदोष बाजाएगा ?
१. धवल पु. १ पृ. १५२ गा.
६७ प्रा. पं. स. पू. ३६ गा. १७३ । २. प्रा. पं. स. पू. ३६ गा. १७४ । ३. धवल पु. १ पृ. १५२ । ४. स. सि २०११ । ५. स. सि. २२४ ।