Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
गाथा ६५३
सम्यवानमार्गणा/७१७
तिथंच और मनुष्यों के सम्यक्त्व को प्राप्त करते समय शुभ तीन लेश्याओं को छोड़कर अन्य लेश्यायें संभव नहीं हैं। क्योंकि अत्यन्त मन्द विशुद्धिधार सत्यक्ष की प्रायः करने वाले जीव के वहाँ पर जघन्य पीत लेश्या होती है।'
शंका-यहाँ पर देव और नारकियों की विवक्षा क्यों नहीं की ?
समाधान नहीं की, क्योंकि उनके अवस्थित लेण्या होती है। यहाँ पर परिवर्तमान सब लेण्यावाले तिर्यंच और मनुष्यों की ही प्रधान रूप से विवक्षा की गई है ।
यद्यपि गाथा में योग और वेद का कथन नहीं किया गया है किन्तु कपायपाहड़ व जयधवल में इनका कथन है । उसके आधार पर यहाँ भी कथन किया जाता है---
चार प्रकार के मनोयोगों में से अन्यतर (किसी भी) मनोयोग से, चार प्रकार के वचनयोगों में से अन्यतर वचनयोग से तथा प्रौदारिक काययोग और वैक्रियिक काययोग इन सब योगों में से किसी योग से परिणत हा जीव दर्शनमोह की उपशम विधि का प्रारम्भ करता है । इसी प्रकार निष्ठापक और मध्यम अवस्थाबाले जीव के भी कहना चाहिए, क्योंकि इन दोनों अवस्थाओं में प्रस्थापक से भिन्न नियम की उपलब्धि नहीं होती।
सम्यक्त्व की उत्पत्ति में व्याप्त हुए जीव के तीनों वेदों में से कोई एक वेदपरिणाम होता है, क्योंकि द्रव्य और भाव की अपेक्षा तीन वेदों में से अभ्यतर वेदपर्याय से युक्त जीव के सम्यक्त्व की उत्पत्ति में व्याप्त होने में विरोध का अभाव है।"
इस जीव के कारणलब्धि सश्यपेक्ष (अर्थात् करणलब्धि से सम्बन्ध युक्त) क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य इन लब्धियों में संयुक्तपना होना चाहिए । क्योंकि उनके बिना दर्शनमोह के उपशम करने का क्रिया में प्रवृत्ति नहीं हो सकती।'
चारों प्रायू में से किमी भी प्रायु का बन्ध होने पर सभ्यग्दर्शन तो हो सकता है किन्तु अणुव्रत व महाप्रत मात्र देवाबु के वन्ध होने पर ही हो सकते हैं; एक गाथा द्वारा इसका कथन किया जाता है.
चतारिवि खेत्ताई पाउगबंधेरण होदि सम्मत्तं ।
अणुवदमहत्वदाइं रण लहइ देवाउगं मोत्तुं ॥६५३॥ गाथार्थ- चारों गति सम्बन्धी प्रायु कर्म का बन्ध हो जाने पर भी सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो सकता है । किन्तु अगुवत और महाव्रत देवायु के अतिरिक्त अन्य प्रायु के बन्ध होने पर प्राप्त नहीं हो सकते ।।६५३।।
१. जयपवल' पु. १२ पृ. २०५। २. जयदल पू. १२ पृ. २०५। ३. जयधवल पु. १२ पृ. ३०५-३०६ । ४. व ५. जयधवल पु. १२ पृ. २०६। ६. धवल पु. १ पृ. ३२६ गाथा १६६ । प्रा. पं. सं. पृ. ४२ गाथा २०१; गो. क. गाथा ३३४।