Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 750
________________ ७१६/गो. सा. जीवकाण्ड गाचा ६५२ शंका-नस जीवों से रहित असंख्यात समुद्रों में तिर्यंचों का प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करना कैसे बन सकता है ? समाधान नहीं, क्योंकि वहाँ पर भी पूर्व के वैरी देवों के प्रयोग से ले जाये गये निर्यच सम्यक्त्व की उत्पत्ति में प्रवृत्त हुए पाये जाते हैं।' शंका-- नव ग्रैबेयक से उपरिम अनुदिश और अनुत्तर विमानबासी देवों में सम्यवत्व की उत्पति क्यों नहीं होती? समाधान नहीं होती, क्योंकि उनमें सम्यग्दृष्टि जीवों के ही उत्पन्न होने का नियम है । सागारे पटुवगो णिढवगो मज्झिमो य भजियच्यो । जोगे अण्णवम्हि य जहण्णगो तेउलेस्साए ॥८॥' -दर्शनमोह की उपशमविधि का प्रारम्भ करने वाला जीव अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय से लेकर अन्तमहतं तक प्रस्थापक कहलाता है। वह जीव उस अवस्था में साकार अथात ज्ञानोपयोग में ही उपयक्त होता है, क्योंकि उस समय में पविचारस्वरूप दर्शनोपयोग की प्रवृत्ति का विरोध है । इसलिए मति, श्रुत और विभंग में से कोई एक साकार उपयोग ही उसके होता है, अनाकार उपयोग नहीं होता। क्योंकि अविमर्शक और सामान्यमात्रग्राही चेतनाकार उपयोग के द्वारा विमर्शक स्वरूप तत्त्वार्थधद्धान लक्षण सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के प्रति अभिमुखपना नहीं बन सकता। जागृत अवस्था से परिणत जीव ही सम्यक्त्व की उत्पत्ति के योग्य होता है, अन्य नहीं, क्योंकि निद्रारूप परिणाम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के योग्य विशुद्धिरूप परिणामों से विरुद्ध स्वभाव वाला है। इस प्रकार प्रस्थापक के साकारोपयोग का नियम करके निष्ठापक रूप अवस्था में और मध्यम (वीच की) अवस्था में साकार उपयोग और अनाकार उपयोग में से अन्यतर उपयोग भजनीय है। दर्शनमोह के उपशामनाकरणा को समाप्त करने वाला जीव निष्ठापक होता है। समस्त प्रथम स्थिति को क्रम से गलाकर अन्तर में प्रवेश की अभिमुख अवस्था के होने पर निष्ठापक होता है। साकारोपयोग या अनाकार-उपयोग इन दोनों में से किसी एक के साथ निष्ठापक होने में विरोध नहीं है। इसी प्रकार मध्यम अवस्था वान्ले के भी कहना चाहिए । पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याओं में से नियम से कोई एक वर्धमान लेश्या होती है। इनमें से कोई भी लेश्या हीयमान नहीं होती। इस जीब के कृष्ण, नील और कापोत ये तीन अशुभ लेश्या नहीं होती। शंका-वर्धमान शुभ तीन लेश्याओं का नियम यहाँ पर किया है, यह नहीं बनता; क्योंकि नारकियों के सम्यक्त्व की उत्पत्ति करने में व्यापृत (तत्पर) होने पर अशुभ तीन लेश्या भी सम्भव हैं। समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि तिर्यंचों और मनुष्यों की अपेक्षा यह कहा गया है। १. जयघवल पु. १२ पृ. २६६ । ४. जयधवल पू. १२ पृ. ३०४ । २. जगबवल पु. १२ पृ. ३२० । ३. जयघवल पु. १२ पृ. ३०४ । ५. जयधवल पु. १२ पृ. २०४ । ६. जयधवल पु. १२५, ३०५ ।

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