Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६५६/गो. सा. जीवकाण्ड
गोश ६०१-६१६
दोगुणगिद्धाणुस्स य दोगुगलुक्खाणुगं हवे रूथी । इगितिगुणादि अरूवी रुक्खस्स वि तंव इदि जाणे ।।६१४॥ णिद्धस्स णिद्धण दुराहिएण लुक्खस्स लुक्खेण दुराहिएण। णिद्धस्स लुक्खेण हवेज्ज बंधोजहण्णवज्जे विसमे समे वा ।। ६१५॥' रिणद्धिवरे समविसमा दोतिगादी दुउत्तरा होति । उभयेवि य समविसमा सरिसिदरा होंति पत्तेयं ॥६१६।। वोतिगपभवदुउत्तरगदेसरणंतरदुगाण बंधो दु । गिद्ध लक्खे वि तहावि जहष्णुभयेवि सम्वत्थ ॥६१७।। रिणद्धिदरवरगुणाणू सपरढाणेवि ऐदि बंध?' । बहिरंतरंगहेहि गुणंतरं संगदे एदि ॥६१८॥ रिद्धिदरगुणा अहिया होणं परिणामयंति बंधम्मि । संखेज्जासंखेज्जाणंतपदेसारण
खंधारग ॥६१६।।
गाथार्थ-स्निग्धत्व और रूक्षत्व बन्ध के कारण होते हैं। स्निग्ध व रूक्ष गुगा के एक को आदि लेकर संख्यात, असंख्यात व अनन्त भेद होते हैं ।।६०६॥ स्निग्धत्र के एक गुण से अभिप्राय जघन्य गुण कहने का है। द्विगुगा, त्रिगुण, संख्यात गुण, असंख्यात गुरण व अनन्त गुण होते हैं। इसी प्रकार रूक्षत्य के होते हैं ।।६१०॥ इस प्रकार गुणसंयुक्त परमाणु प्रथम वर्गणा में स्थित होते हैं। दो आदि गुण वाले परमाणु बन्ध के योग्य होते हैं। दो परमाणुओं का बन्ध होता है कम का नहीं, ऐसा नियम है ।। ६११।। स्निग्ध पुद्गल स्निग्ध पुद्गलों के माथ नहीं बँधते, रूक्षपुद्गल रूक्षपुद्गलों के साथ नहीं बंधते। किन्तु सरश (समान गुरण बाले) और विसदश (असमान गुरगवाले) स्निग्ध व रूक्ष पुद्गल परस्पर बँधते हैं ।।६१२।। स्निग्ध और रूक्ष की पंक्तियों के मध्य जो विसदृश जाति का एक समगुण है उस परमाणु की रूपी संज्ञा है और शेष सब की अरूपी संज्ञा ||६१३।। द्विगुण वाले स्निग्ध परमाणु की अपेक्षा दो गुण वाला रूक्ष परमाणु रूपी है किन्तु एक गुणवाला व तीन यादि गुरगवाले अरूपी हैं । इसी प्रकार रूक्ष की अपेक्षा भी जानना चाहिए ॥६१४।। स्निग्ध पुद्गल का दो गुण अधिक स्निग्ध पुद्गल से और रूक्ष पुद्गल का दो गुण अधिक रूक्ष पुद्गल के साथ बन्ध होता है । स्निग्ध पद्गल का रूक्ष पुद्गल के साथ जघन्य गुगा के अतिरिक्त विषम (विसदृश) अथवा सम (सहश) गुरण के रहने पर बन्ध होता है ।।६१५।। स्निग्ध व सक्ष दोनों में ही दो गुण के ऊपर जहां दो-दो की वृद्धि हो वहाँ समधारा होती है और जहाँ तीन गुण के ऊपर दो-दो की वृद्धि हो वहां विषम धारा होती है । सदश और विसदृश ये दोनों सम व विषम इनमें से प्रत्येक में होते हैं ॥६१६।। स्निग्ध में दो गुग के आगे दो-दो की वृद्धि होती है और तीन गुण के प्रागे दो-दो की वृदि होती है । उनमें दो का अन्तर होने से स्निग्ध का स्निग्ध के साथ बन्ध हो जाता है । रक्षा में भी इसी प्रकार जानना चाहिए किन्तु दोनों में सर्वत्र ज धन्य का बन्ध नहीं होता ।।६१७॥ स्निग्ध व क्ष का
१. धवल पु. १४ पृ. ३३ गा. ३६ राजचातिक ५/३६ में उद्धृत्त ।