Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
७००/गो. सा, जीव काण्ड
गाथा ६४३
औदारिक अंगोपांग, बैंक्रियिक शरीर अंगोपांग, पाहारक शरीर अंगोपांग ये तीन अंगोपांग, प्रशस्त विहायोगति, आदि संहनन अर्थात् वज्र वृषभ नाराच संहनन, प्रशस्त वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श, अगुरुल त्रु, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, पातप, सचतुष्क, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, निर्माण, पादेव, यश कीति, तीर्थकर और उच्चगोत्र ये ४२ प्रशस्त, शुभ या पुष्य-प्रकृतियाँ हैं।'
पाप प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं --
ज्ञानावरण की पात्र, अन्तराय की पांच, दर्शनावरण की नौ, मोहनीय की ट्रध्वीस, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, आदि के बिना शेष पाँचों संस्थान, आदि के बिना शेष पांचों संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, उपघात, एकेन्द्रियजाति. नरकायु, तीन विकलेन्द्रिय जातियाँ, असातावेदनीय अपर्याप्त, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, दुर्भग, दुःस्वर, अयश कीति, अनादेय, अस्थिर, अशुभ और नीचगोत्र ; ये बयासी अप्रशस्त या अशुभ या पाप प्रकृतियाँ हैं ।
शंका --च कि सब कार्मण वर्गणाएँ पौद्गलिक होने से एक प्रकार की हैं अत: उनमें से पूछ कर्मप्रकृतियों को पुण्य और कुछ को पाप नहीं कहा जा सकता?
समाधान-भिन्न-भिन्न कर्मों में भिन्न-भिन्न फल देने की शक्ति के कारण अर्थात् अनुभाग के कारण उन प्रकृतियों में भेद है। कहा भा है--
जिन प्रकृतियों की फलदान-शक्ति अर्थात अनुभाग गुद. खांड, शक्कर, अमृत के तुल्य उत्तरोत्तर मिष्ट होते हैं वे पुण्यकर्मप्रकृतियाँ हैं। जिनका अनुभाग इससे विपरीत नाम, कांजीर, विष, हलाहल के समान उत्तरोत्तर कटुक हो वे पाप कर्भप्रकृतियाँ हैं।'
शङ्खा ...पुण्यकर्म से मात्र रसना इन्द्रिय को मिटास का स्वाद प्राता है या अन्य भी कुछ लाभ
समाधान—गुड़, खाण्ड, शक्कर, अमृत मात्र उपमारूप है, जिसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार अमृत-पान करने से मनुष्य अजरअमर हो जाता है इसी प्रकार पुण्य कर्मोदय की सहकारिता से जीव अजर अमर हो जाता है अर्थात् अर्हन्त व सिद्धपद को प्राप्त कर लेता है । कहा भी है-"पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम्, तत्सवद्यादि ।"
___-जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे प्रात्मा पवित्र होता है वह पुण्य है जैसे सातवेदनीय आदि पुण्य प्रकृतियाँ ।
शंका-पुण्यकर्म तो प्रास्रव बन्ध रूप है। मानव व बन्ध हेय तत्त्व हैं, क्योंकि संसार को बढ़ाने वाले हैं। ऐसा पुण्यकर्म प्रात्मा को कैसे पवित्र कर सकता है ?
समाधान--सभी कर्मप्रकृतियाँ संसारवृद्धि की कारण नहीं होती। कुछ ऐसी भी हैं जो मोक्ष की कारण हैं। सोलह कारण भावना जो नीर्थकर प्रकृति के प्राव व बन्ध की कारण हैं. उन सोलह
२. प्रा. पं. सं., २६६ गाथा ४५६- ४५६ ।
३. प्रा. पं. सं. पृ.
१. प्रा. पं. सं पृ. २६५ गाथा ४५३-४५५1 २७६ । ४. स. सि. ६/३३