Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
गाथा ६४२-६४३
मनुष्य गति में गुणास्थानों की अपेक्षा जीवों तेरसकोडी देसे बावण्णं सासर मुरगेदव्वा ।
मिस्से वि य तद्द गुरगा प्रसंजदा ससकोडिसयं ॥ ६४२॥ '
गायार्थ- देशसंयत गुणस्थान में तेरह करोड़ मनुष्य, सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में बावन करोड़ मनुष्य मम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में सासादन से दुगुणे अर्थात् १०४ करोड़ मनुष्य श्रीर असंयत सम्यग्दृष्टि मनुष्य सातसौ करोड़ हैं || ६४२ ||
विशेषार्थ - सासादन सम्यग्दष्टि आदि चार गुणस्थानों में से प्रत्येक गुणस्थानवर्ती मनुष्यराशि संख्यात है, ऐसा सामान्य रूप से कथन करने पर, सासादनसम्यग्दष्टि मनुष्य बावन करोड़ हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्य सासादनसम्यग्वष्टि मनुष्यों के प्रमाण से दूने हैं अर्थात् एकसौ चार करोड़ हैं । असंयत सम्यग्दृष्टि सातसौ करोड़ हैं। संयतासंयत मनुष्यों का प्रमाण तेरह करोड़ है । कहा भी
सम्यक्त्वमागंणा / ६९६
तेरह कोडी बेसे बावण्णं सासणे मुणेयब्वा । मिस्ले वि य तद्दुगुखा श्रसंजदे सत्तकोडिसया ॥६८॥
किन्तु कितने ही प्राचार्य निम्नलिखित गाथा के आधार पर सासादन सम्यष्टि मनुष्यों का प्रमाण पचास करोड़ कहते हैं ।
सेरह कोडी देसे पण्णासं सासणे मुणेयब्वा ।
मिस्से वि य तद्द, गुरणा प्रसंजदे सतोडिसया ॥ ६६ ॥ ।
4
- मनुष्यों में सासादन सम्यग्दृष्टि मनुष्यों की संख्या के सम्बन्ध में दो मत हैं । एक बावन करोड़ का दूसरा पचास करोड़ का । किन्तु इनमें से बावन करोड़ की मान्यता आचार्य परम्परागत होने से स्वीकार की गई है ।
पुण्य व पाप कर्मो का कथन जीविदरे कम्मचये पुष्णं पावोत्ति होदि सुपयडीरणं दध्वं पावं प्रसुहारण
पुष्णं तु । दध्यं तु ॥ ६४३ ॥
गाथार्थ -- जीवेतर अर्थात् अजोव पदार्थ में कार्मण वर्गेणा पुण्य व पाप दो प्रकार की होती है। शुभ प्रकृतियाँ द्रव्य पुण्य हैं। अशुभ प्रकृतियाँ द्रव्य पाप हैं ||६४३ ।।
विशेषार्थ जीव और प्रजीव दोनों पुण्य रूप भी हैं और पाप रूप भी हैं। पुण्य जीव व पाप जीव का कथन गा. ६२२ में हो चुका है। यहाँ पर अजीव पुण्य-पाप अर्थात् पुण्य द्रव्यकर्म व पाप द्रव्यकर्म का कथन है। पुण्य प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं
सातावेदनीय, तियंचायु, मनुष्यायु, देवायु ये तीन श्रायु, मनुष्य द्विक (मनुष्य गति, मनुष्यगन्यानुपूर्वी) देवद्विक ( देवगति देवगत्यानुपूर्वी), पांच शरीर, पंचेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान,
१. धवल पु. ३ पृ. २५४ । २. व ३. घबल पु. ३ पृ. २५२ ।