Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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७०/गो. सा, जीबकाण्ड
गाघा ६४६-१४%
___---क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव प्रायुवन्ध के वश से देव और नारकियों में उत्पन्न होता है, वह देव पीर नारक भव से प्राकर अनन्तर भव में ही चरम देह के सम्बन्ध का अनुभव कर मुक्त होता है। इस प्रकार उसके दर्शनमोहनीय की क्षपणा सम्बन्धी भव के साथ तीन ही भवों का ग्रहगा होता है। परन्तु जो पूर्व में बन्ध को प्राप्त हुई वायु के सम्बन्धवश भोगभूमिज तियंचों या मनुष्यों में उत्पन्न होता है, उसके क्षपणा के प्रस्थापन के भव को छोड़कर अन्य तीन भव होते हैं, क्योंकि भोगभूमि से देवों में उत्पन्न होकर और वहाँ से च्युत होकर मनुष्यों में उत्पन्न हुए उसके निर्वागा प्राप्त करने का नियम है।'
प्रतिपक्ष कर्मों का अत्यन्त क्षय हो जाने पर क्षायिक सम्यनत्व होता है अनः क्षायिक सम्यग्दृष्टि किन्हीं भी बाह्य कारणों से सम्यक्त्व से च्युत नहीं होता । अन्तरंग और बाह्य दोनों कारणों के मिलने पर कार्य की सिद्धि होती है, मात्र किसी एक कारण से कार्य नहीं होता । सम्यक्त्व के प्रतिपक्ष दर्शनमोहनीय क्रम ब अनन्तानुहमी कषाग नष्ट के बारागार में पाविम. सम्यग्दष्टि कुयुक्ति आदि द्वारा सम्यक्त्व से न्युत महीं हो सकता । क्षायिक सम्यग्दृष्टि कभी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता, किसी प्रकार से सन्देह नहीं करता और मिथ्यान्वजन्य अतिशयों को देखकर विस्मय को भी प्राप्त नहीं होता।
वसणमोहे खविवे सिझदि एक्केव तदिये तुरियभवे । णादिक्कमदि तुरियभवं ण विणस्सदि सेससम्म व ॥१६४॥
-दर्णनमोहनीय कर्म का क्षय होने पर जीव या तो उसी भव में मुक्त हो जाता है, या तीसरे भव में या चौथे भव में मुक्त हो जाता है। चौथे भव का उल्लंघन नहीं करता।
दर्शनमोहनीय कर्म के क्षपण वा प्रारम्भ यह जीव जम्बुढीप, बासकोखंड और पुष्कराध इन अदाई द्वीपों में तथा लवण और कालोदक इन दो समृद्रों में करता है, शेष द्वीप और समुद्रों में नहीं करता, क्योंकि उनमें दर्शनमोह के क्षण करने के सहकारी कारणों का अभाव है। अढाई द्वीप में भी पन्द्रह कर्मभूमियों में प्रारम्भ करना है. भोगभूमियों में नहीं। कर्मभूमियों में भी मात्र पर्याप्त मनुष्य ही प्रारम्भ करते हैं, देव व निर्य व नहीं ।
शंका-मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीव ममुद्रों में दर्शन मोहनीय की क्षपणा का कैसे प्रस्थापन करते हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि विद्या प्रादि के वश से समृद्र में साये हुए जीवों के दर्शनपोह का क्षपण होना सम्भव है।
गाथा में पाये हुए 'के वलिमुले पद से यह कहा गया है कि जिम काल में जिन सम्भव हैं उसी काल में दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक होता है, अन्य काल में नहीं । इससे दुःपमा, दुःषमदुःषमा, सुषमासुषमा और सुषमा काल में उत्पन्न हुए मनुष्य के दर्शनमोह की क्षापरणा का निषेध हो जाता है।
१. जयधवल पु.१३ पु.१०। २. धवल पु. १ पृ. १७१।
३. लम्पिसार, स्वा. का. प्र. गा. ३०८ टीका ।