Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ६४६
सम्यक्त्वमामेणा/७०९
शङ्खा -- मुषमादुःषमा काल में उत्पन्न हुए मनुष्य दर्शनमोह को क्षपणा कैसे कर सकते हैं ?
समाधान---सुपमादुःषमा काल में श्री ऋषभदेव तीर्थकर हुए हैं। इस अवपिणी के सुपमादुःपमा तीसरे काल में एकेन्द्रिय पर्याय से आकर उत्पन्न हुए बर्द्धनकुमार प्रादि को दर्शनमोह की क्षपणा हुई है।
जो स्वयं तीर्थंकर होने वाले हैं, वे दर्शनमोहकर्म की क्षपणा स्वयं प्रारम्भ करते हैं, अन्यथा तीसरी पृथिवी से निकले हुए कृष्ण प्रादिकों के तीर्थकरत्व नहीं बन सकता है।'
केवली के पादमूल में ही मनुष्य के परिणामों में इतनी विशुद्धता पाती है जो वह दर्शनमोहनीय कर्म की क्षपणा का प्रारम्भ कर सकता है। अन्यत्र इतनी विशुद्धता सम्भव नहीं है, किन्तु जो उसी भव में तीर्थकर होने वाले हैं और जिन्होंने पूर्व तीसरे भव में तीर्थकर प्रकृति का वध कर लिया है ऐसे तीर्थंकर प्रकृति के सत्व सहित क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव के परिणामों में, तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता के कारगा स्वनः इतनी विशुद्धता या जाती है कि वह स्वयं दर्शनमोहनीयकर्म की क्षपणा कर सकता है।
कृतकृत्यवेदक होने के प्रथम ममय से लेकर कार के समय में दर्शनमोह की क्षपणा करने वाला जोव निष्ठापक कहलाता है। दर्शनमोह की क्षपणा का प्रारम्भ करने बाला जीव कृतकृत्यवेदय होने के पश्चात आयुबन्ध के बश से चारों गतियों में उत्पन्न होकर दर्शनमोह की क्षपणा को सम्पर्ण अर्थात सम्पन्न करता है, क्योंकि उन-उन गतियों में उत्पत्ति के कारण भूत लेश्या-परिणामों के वहाँ होने में कोई विरोध नहीं है।
वेदक राम्यन्व प्रथवा क्षथोषणम सम्यकद का स्वरूप दंसमोहदयादो उपज्जइ जे पयस्थसद्दहणं ।
चलमलिगमगाटं तं वेदयसम्मतमि दि जाणे ॥६४६॥' गायार्थ दर्शनमोह (सम्यक्त्व प्रकृति) के उदय से जो चल-मलिन-प्रगाढ़ रूप पदार्थों का श्रद्धान होता है, उसे वेदक रा यवत्व जानना चाहिए ।। ६४६ ।।
विशेषार्थ--दर्शनमोहनीय कर्म की तीन प्रकृतियां हैं-सम्यक्त्व प्रकृति, मिथ्यात्व प्रकृति और तदुभय (मम्यग्मिथ्यात्व) प्रकृति । जिस दर्शनमोह के उदय में यह जीव सर्वज्ञप्रणीत मार्ग से विमुख, तत्त्वार्थों के श्रद्धान में निरुत्सुक, हिताहित का विचार करने में असमर्थ होता है वह मिथ्यात्व-दर्शन मोहनीय है। जब शुभ परिणामों के कारण दर्शनमोहनीय रूप स्वरस (स्वविपाक) रुक जाता है और उदासीन रूप से अवस्थित होकर प्रात्मा के श्रद्धान को नहीं रोकता तब वह सम्यक्त्व दर्शनमोहनीय है। इसका वेदन करने वाला पुरुष सम्यग्दृष्टि होना है। चार अनन्तानुबन्धी कषाय, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के उदयाभाव क्षय और सदवस्थारूप उपशम से और देशघाती सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में जो तत्त्वार्थश्रद्धान होता है, वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है।'
३. धवल पु. १ पृ. ३६६ गा. २१५
१. धवल पु. ६ पृ. २४४-२४७ । २. धवल पु. ६ पृ. २४०-२४८ । स्वा का. अ. गा. ३०६ टीका । ४. म. मि. 18। ५. स. सि. २/५ ।