Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

View full book text
Previous | Next

Page 739
________________ गाथा ६८६-६४८ सम्यक्त्वमार्गणा/७०५ असंख्यातगुण निर्जरा अणवतधारी के होती है। उससे असंख्यातगुण निर्जरा महाव्रतधारी ज्ञानी के होती है। उससे असंख्यातगुण निर्जरा प्रथम चार कषाय अर्थात् अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ की विसंयोजना करनेवाले के होनी है। उससे असंख्यातगुण निर्जरा दर्शन मोहत्रिक कर्म का क्षय करनेवाले के होती है । उससे असंख्यातगुण कर्मनिर्जरा उपशम श्रेणीवाले के, उससे असंख्यातगुण कर्मनिर्जरा उपशान्तमोह के, उससे असंख्यातगुण निर्जरा क्षपक श्रेणी के, उससे असंख्यातगुण निर्जरा क्षीणमोह के, उससे असंख्यातगुणनिर्जरा सयोगीकेवली के और उससे असंख्यातगुण कर्मनिर्जरा प्रयोगकेवली के होती है। इस प्रकार प्रयोगकेवली के उत्कृष्ट कर्मनिर्जरा होती है जो असंख्यात समयप्रबद्ध प्रमाण है। यहाँ पर अविपाक निर्जरा से प्रयोजन है, क्योंकि अविपाक कर्ममिर्जरा का द्रव्य असंन्यात-समयप्रवद्ध प्रमाण होता है । सविपाक कर्मनिर्जरा का द्रव्य तो एक समयबद्ध मात्र होता है। त्रिकोण यंत्र-रचना से स्पष्ट हो जाता है कि सत्त्व द्रव्य कर्म कुछ कम डेढगुणहानिसमयप्रबद्ध प्रमाण है। चौदहवे गुणस्थान के अन्त में इस सत्त्व द्रव्य कर्म का क्षय करके मोक्ष होता है। अत: मोभ का द्रव्य सत्त्व कर्म है जो कुछ कम डेढ़गुणहानि समयबद्ध प्रमाण है। सायिक नम्यकव खीणे दंसरणमोहे जं सहहरणं सुरिणम्मलं होई । तं खाइयसम्मत्तं णिच्चं कम्मक्खवरणहेतु ।।६४६॥' यहिं वि हेहि वि इंदियभयारणएहि रूबेहि । वोभन्छजुगुच्छाहि य तेलोकेरण यि रण चालेज्जो ।।६४७॥ दंसरणमोहक्खवरणापवगो कम्मभूमिजादो हु। मणुसो केलिमूले गिट्ठवगो होदि सम्वत्थ ॥६४८।।* गाथार्थ---दर्णनमोहनीय कर्म के क्षय हो जाने पर जो निर्मल श्रद्धान होता है वह क्षायिक मम्यक्त्र है, वह नित्य है और कर्मों के क्षय का कारण है ।।१४६।। श्रद्धान को भ्रष्ट करनेवाले वचन या हेतुनों से अथवा इन्द्रियों को भय उत्पन्न करने वाले प्राकारों से या बीभत्स (भयंकर) पदार्थों के देखने से उत्पन्न हुई ग्लानि से, किंबहुना त्रैलोक्य से भी वह चलायमान नहीं होता ।।६४७।। कर्मभूमिज मनुष्य ही केवली के पादमूल में दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय का प्रारम्भक होता है, किन्तु निष्ठापक सर्वत्र होता है ।।६४६।। विशेषार्थ-प्रध:करण, अपूर्वकरण, अनिवत्तिकरगा इन तीन करण लब्धि रूप परिणाम की सामर्थ्य से तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ इन चार प्रकृतियों के क्षय से तथा १. स्वा. का. अनु. गाथा १०६-१०८ २. "बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षा मोक्षः ।।" १०/२॥ [तत्त्वार्थमूत्र। ३. धवल पु. १ पृ. ३६५ गा. २१३, प्रा. पं. सं. पृ. ३४ गा. १६०। ४. घवल पु.१ पृ. ३६५ गा. २१४; प्रा.पं. स. पू. ३४४ गा.१६१ । ५. जयधवल पु. १३ गा, ११० पृ. २, प्रा. पं. सं. पृ.४२ मा २०२ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833