Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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७०२ / गो. सा. जीबकाण्ड
समाधान - मनुष्य गति, बज्रवृषभनाराच संहनन, उच्चगोत्र श्रादि पुण्य प्रकृतियों के स्वमुख उदय बिना ग्राज तक किसी भी जीव को मोक्षसुख प्राप्त नहीं हुआ है और न होगा । जितने भी प्रवतक मोक्षगये हैं या में नाराचसंहनन और उच्चगोत्र आदि पुण्यप्रकृतियों का उदय था, व उदय श्रवश्य होगा ।
गाथा ६४४-६४५
तीर्थकर प्रकृति का वन्ध होजाने पर अधिक से अधिक तीसरे भव में अवश्य मोक्षसुख प्राप्त होगा । उपर्युक्त मनुष्य गति, उत्तम संहनन आदि की सम्प्राप्ति के बिना मोक्ष के हेतुभूत समग्र रत्नत्रय की प्राप्त त्रिकाल में भी नहीं हो सकती ।
"मोक्षस्यापि परमपुण्यातिशय चारित्रविशेषात्मक पौरुषाभ्यामेव संभवात् । " श्री विद्यानन्दी महान् तार्किक प्राचार्य थे, उन्होंने कहा है "परमपुष्य के अतिशय से तथा चारित्र रूप पुरुषार्थ से इन दोनों कारणों से मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
"निश्चयधर्मो यद्यपि सिद्धगतेरुपादानकारणं भव्यानां भवति तथापि निदानरहितपरिणामोपाजित तीर्थंकर प्रकृत्युसम संहनना दि-विशिष्ट पुण्य रूप-कर्मापि सहकारीकारणं भवति, तथा यद्यपि जीव- पुद्गलानां गतिपरिणतेः स्वकीयोपादानकारणमति तथापि धर्मास्तिकायोपि सहकारीकारणं भवति । "
- जिस प्रकार निश्चयधर्म भव्यों को सिद्धगति के लिए यद्यपि उपादान कारण है तथापि निदानरहित परिणामों से उपाजित तीर्थंकर प्रक्रति, उत्तम संहनन आदि विशिष्ट पुण्यकर्म भी सिद्धगति के लिए सहकारी कारण हैं । उसी प्रकार गतिपरिणत जीव मुद्गल, अपनो ग्रपनी गति के लिये यद्यपि उपादान कारण हैं तथापि उस गति में धर्म द्रव्य सहकारी कारण होता है। इसप्रकार पुण्य कर्मोदय की सहकारिता मोक्षसुख के लिए सिद्ध हो जाती है ।
प्राव, संवर, निर्जरा, बंध व मोक्ष का द्रव्यप्रमारण प्रासव संवरद समयपबद्ध तु रिगज्जरादध्यं ।
तत्तो प्रसंखगुरिदं उक्कस्सं होदि यिमेर ॥। ६४४ ॥
बंध समaat किंचूरा दिवढमेत्तगुणहारगो ।
मोक्खो य होदि एवं सद्दहिदत्वा वु तच्चट्ठा ।। ६४५ ।।
गाथार्थ - प्रास्रव और संवर का द्रव्यप्रमाण समयबद्ध मात्र है। निर्जरा का उत्कृष्ट द्रव्य असंख्यात समयबद्ध प्रमाण है || ६४४ ॥ बंध भी समयप्रबद्ध प्रमाण होता है । ( किचित् ऊन समयबद्ध प्रमाण हे गुणहानि गुणित द्रव्यकर्म का क्षय होने पर मोक्ष होता है)। इसलिए मोक्ष का द्रव्य किंचित् कन डेढ़ गुणहानि समयप्रबद्ध प्रमारण कहा गया है। इस प्रकार तत्त्वों का श्रद्धान करना चाहिए | ६४५ ||
१. स्त्री पृ. २५७ । २. पंचास्तिकाय गा. ८५ तात्पर्यवृत्ति |