Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ६४३
सम्पत्वमागंणा/७०१
कारण भावनाओं की दिगम्बर जैन परम्परा में पूजन होती है, क्योंकि तीर्थकर प्रकृति का बन्ध होकर, उदय पाने पर मनुष्य को अरहन्त पद की प्राप्ति होती है और धर्म-तीर्थ की प्रवृत्ति होती है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा भी है -
"पुण्णफला अरहता।" ।।४५||' अर्थात् अरहन्त पद पुण्यकर्म का फल है।
"मनुष्यगतौ केवलज्ञानोपलक्षितजीवद्रव्यसहकारिकारणसंबंधप्रारंभस्यानंतानुपमप्रभावस्याचिन्त्यविशेषविभूतिकारणस्य बलोक्यविजयकरस्य तीर्थकरनामगोत्रकर्मणः कारणानि षोडशभावना भावयितव्या इति ॥
इस संसार में तीर्थंकर नामकर्म मनुष्यगति में जीय को केवलज्ञान उत्पन्न करने में कारण है तीर्थकर कर्म के उदय का प्रभाव अनन्त व अनुपम है। वह अचिन्त्य विभूति का कारण है और तीनों लोकों की विजय करने वाला है। इसलिए उस तीर्थंकर नाम कर्म की कारणभूत मोलह भावनाओं का चिन्तन करना चाहिए ।
पुण्यात सुरासुरनरोरगभोगसाराः श्रीरायुरप्रमित-रूपसमृद्धयो गौः । साम्राज्यमन्द्रमपुनर्भवभावनिष्ठ-प्रार्हन्त्यमन्त्य-रहिताखिलसौख्यमग्र्यम् ॥१६॥७२॥'
-सूर असुर, मनुष्य और नाग इनके इन्द्रिय यादि के उत्तम भोग, लक्ष्मी, दीर्घ-आयु, अनुपम रूप, समृद्धि, उत्तम वाणो, चक्रवर्ती का साम्राज्य. इन्द्रपद, जिसे पाकर पुनः संसार में जन्म न लेना पड़े ऐमा अरहन्त पद और अनन्न समस्त सुख देने वाला श्रेष्ठ निर्वाणपद इन राब की प्राप्ति पुण्यकर्म मे होती है।
पुण्याच्च क्रधरश्रियं विजयिनीमैन्द्री च दिव्यश्रियं पुण्यात्तीर्थकरश्रियं च परमां नःश्रेयसीञ्चाश्नुते । पुण्यादित्यसुभृच्छियां चतसृरणामाविर्भवेद् भाजनं
तस्मात्पुण्यमुपार्जयन्तु सुधियः पुण्याजिनेन्द्रागमात् ।।३०।१२६॥ -पुण्यकर्म से सर्व विजयी चक्रवर्ती की लक्ष्मी, इन्द्र की दिव्य लक्ष्मी मिलती है. पुण्यकर्म से ही तीर्थ पर वी लक्ष्मी प्राप्त होती है और परम कल्याण रूप मोक्षलक्ष्मी भी पुण्य कर्म से मिलती है। इस प्रकार यह जीव पुण्य कर्म से ही चारों प्रकार की लक्ष्मी का पात्र होता है । इसलिए हे सुधी ! तुम भी जिनेन्द्र भगवान के पवित्र आगम के अनुसार पुण्य का उपार्जन करो।
"पुण्यप्रकृतयस्तीर्थपदादि-सुख-खानयः । ५. ये पुण्य कर्मप्रकृतियाँ तीर्थकर प्रादि पदों के सुख देने वाली हैं।
शङ्का-अरहंतपद व मोक्षसुख प्रात्म-परिणामों से प्राप्त होते हैं तथा कर्मी के क्षय से प्राप्त होते हैं, इनमें गुण्य कर्म कैसे सहकारी कारण हो सकता है, कर्म तो बाधक कारण है।
१. प्रवचनसार । २. चारित्र मार पू५० । ३ व ४ महापुराण । ५. मुलाचार प्रदीप पृ. २०० ।