Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ६३१-६३३
सम्यक्त्वमार्गगणा/६६३
पत्तेय-बुद्धतित्थयरत्थिरणउसयमरणोहिणारगजुदा । दसछक्कयोसदसवीसट्ठावीसं जहाकमसो ॥६३१।। जेटावरबहुमज्झिमोगाहणगा दु चारि अट्ठव । जुगवं हवंति खवगा उपसमगा अद्धमेदेसि ॥६३२।।
गाथार्थ -एक समय में क्षगक उत्कृष्ट रूप से एक साथ बोधिनबुद्ध १०८, पुरुषवेद १०८ स्वर्ग म च्युत होकर क्षपक श्रेणी चढ़नेवाले १०८॥६३०।। प्रत्येकबुद्ध १०, तीर्थकर ६, स्त्रीवेदी २०, नपुमक वेदी १०. मनः पर्ययज्ञानी २०, अबधिज्ञानी २८।।६३१॥ उत्कृष्ट अवगाहना वाले २. जघन्य अवगाहना के धारक ४, बहु मध्यम अवगाहना बाले ८, ये सब मिलकर क्षपक होते हैं। उपशमश्रेणी वाले इनमे प्राधे होते हैं ॥६३२।।
विशेषार्थ -एक समय में एक साथ छह तीर्थकर क्षएकश्रेणी पर चढ़ते हैं। दस प्रत्येक वृद्ध, एकसौ पाठ (१०८) बोधितबुद्ध और स्वर्ग से च्युत होकर आये हुए एकसौ आठ जीव क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हैं। उत्कृष्ट अवगाहना वाले दो जीव क्षपकश्रेणी पर चढ़ते हैं । जघन्य अत्रमाहना बाले चार और ठीक मध्य प्रवगाहना बाले पाठ जीव एक साथ क्षपकश्रेणी पर चढ़ते हैं। पुरुषवेद के उदय के साथ एकसौ जाम, सबवेदोक्यसेवा भावदोक्ष्य से बीस जीव क्षपकणी पर चढते हैं। इन उपयुक्त जीवों के प्राधे प्रमारण जीव उपशम श्रेणी पर चढ़ते हैं। चूंकि ज्ञान, वेद आदि सर्व विकल्पों में उपशमश्रेणी पर चढ़ने वाले जीवों से क्षेपकश्रेणी पर चढ़ने वाले जीव दुगुणे होते हैं।'
गर्व संयमी जीवों की संख्या का प्रमाण सत्तादी अटूता छण्णवमझा य संजदा सवे |
अंजलिमौलियहत्थो तियरण सुद्ध रामसामि ॥६३३॥* गाथार्थ-जिस संख्या के आदि में सात है और अन्त में पाठ और बीच में नौ-नौ के अंक छह हैं (FERREE७) वह सर्व संयतों की संख्या है। इनको मैं मन, वचन, काय की शुद्धता पूर्वक अंजलि रूप से हाथ जोड़कर नमस्कार करता है ।।६३३।। (यह दक्षिण मान्यता के अनुसार कथन है।)
१. धवल पु. ५ पृ ३२३। २ पवन पु. ३ पृ. ६८ गा. ५१ किन्तु उत्तरार्ध इस प्रकार है-"तिगभजिदा
दापमत्तगी एमत्ता दु ।। ३. यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि मयतों की यह संख्या कभी भी एक समय में न जानकर विवक्षा-भेद से यह संख्या कही जाननी चाहिए । कारण कि न तो उपशम श्रेणी के चागे गुगारथानों में से प्रत्येक में एक ही समय में अपने-अपने गुणस्थान की संख्या प्राप्त होना सम्भव है. और न क्षपक श्रेणी के चारों गुणास्थानों में से प्रत्येक में एक ही समय में अपने-२ गुग्गरधान की उन्कृष्ट संख्या प्राप्त हाना सम्भव है। हाँ, उपशम अंगी और क्षपक श्रेणी के प्रत्येक गुणस्थान में, क्रम मे अपने अपने गुग्गस्थान की मंध्या का कालभेद ने प्रश्रय प्राप्त होना सम्भव है। कारण कि जो जीव समयों में इन थेगिायों के ग्राठवें गुणस्थान में चढ़े वे ही तो अन्तमुहुर्त बाद नौवें गुगास्थान में पहुँचते हैं । इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए
और इस प्रकार समयभेद से अन्तम हृतं के भीतर सब संयतों की उक्त संख्या बन जाती है। वहाँ ऐमा अभिप्राय समझना चाहिए । [म. मि. ज्ञानपीठ तृतीय संस्करण का सम्पादकीय पृ. ५-६]